-वीर विनोद छाबड़ा
मैंने नोटिस किया को है कि कुछ अपवादों को छोड़ दें तो पहली संतान के रूप में हर मर्द की चाहत पुत्र की रहती है।
वजह ज़ाहिर है। आख़िरी वक़्त में मुखाग्नि देने के लिए किसी पराये का मुंह न देखना पड़े और खानदान का चिराग़ अनंत जलता रहे।
लेकिन अधिकांश नाशुक्रे लड़की होने पर प्रत्यक्षः तो प्रसन्न दिखते हैं। मगर मन ही मन खुद को कोसने की बजाये पत्नी या कुदरत को दोष देते हैं। उन्हें तसल्ली नहीं होती। पुत्र की चाह में दूसरी संतान के लिए जाते हैं। यहां पर भी अनेक के यहां 'दूसरी' जन्मती है। कई देवी मां का प्रसाद (लक्ष्मी) समझ संतोष कर लेते हैं।
हमने देखा है दूसरी के कारण कुछ के घर में ही नहीं दिलो-दिमाग में घोर निराशा व्यापत होती है। ऐसे ज्यादातर जोड़े और उनकी माताएं कई साधु-सन्यासियों, वैद्य-हकीमों और बाबाओं-तांत्रिकों से मंत्रणा करते हैं। ‘हम दो हमारे दो’ की धज्जियां उड़ाते हुए एक बार फिर पुत्र की चाहत में जुटते हैं।
इसमें सफलता का प्रतिशत तो ठीक-ठाक ज्ञात नहीं है, परंतु मेरे घर के आस-पास कुछ जोड़ों ने इस स्टेज पर अनेक जादू-टोनों का सहारा लिया। ईश्वर से सीधा संपर्क स्थापित करने की निमित्त आकाश की ओर मुंह उठा कर ज़ोर-ज़ोर से विचित्र मंत्रों का उच्चारण किया। प्रचंड यज्ञ, ३६ घंटे का अनवरत पूजा-पाठ किया। धर्म-कर्म ताक पर रख मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों, पीर-पैगम्बरों और दरगाहों के चक्कर लगाये। सर से पैर तक खुद और पत्नी को तावीज़ों से लाद दिया। केवल भिखारियों और ब्राह्मणों के लिए विशाल भंडारे का आयोजन किया। निरीह पशु-पक्षियों की बलि दी। ऊंचे पर्वतों से मंगायी कथित दुर्लभ जड़ी-बूटियों का सेवन किया। परंतु कुदरत के नायाब और खूबसूरत करिश्मे को कोई 'जुगाड़' नहीं बदल सका। तीसरी बार ‘तीसरी’जन्मी।
ऐसे ही एक दुखीः और गहरे अवसाद में डूबे मित्र को मैंने तसल्ली दी -"चिंता मत कर प्यारे। समझो कि साक्षात 'लक्ष्मीजी' पधारी है। खुशी-खुशी ईश्वर को धन्यवाद देते हुए स्वीकार करो।"
मगर इसे अपना उपहास उ़ड़ाना समझ कर वो इतना क्रोधित हुए कि हमसे स्थायी ‘कुट्टी’ कर दी।
अब संयोग देखिये कि 'तीसरी' जन्मने के कुछ ही दिन बाद व्यापार में मिली अपार सफलता के कारण लक्ष्मीजी जमकर बरसीं। उनका सारा दुःख और अवसाद जाता रहा। लेकिन पच्चीस साल गुज़रने के बावजूद हमसे यथावत अदावत बनाये हुए हैं।
कुछ की गोद में कुदरत ने ‘चौथी’ व ‘पांचवी’ कन्या भी डाली है। पुराने ज़माने में असली देसी-घी खाने का दम भरने वाले कुछ जोड़े इससे भी आगे छह-सात तक चले हैं।
मगर आज के महंगाई के दौर में ज्यादातर ‘तीसरी’ वालों ने तीसरी पर तौबा कर ली है।
बहरहाल, त्रासदी यह है कि हमारे समाज ने प्रायः ‘तीसरी’ को ‘मोस्ट अनवांटेड’ की श्रेणी में रखा है।
स्वाभाविक है कि इस 'अनवांटेड' के अवांछनीय बोझ के टैग के साथ जीना अत्यंत कष्टप्रद है।
लेकिन यह इस हाईटेक युग की ही विशेषता है कि अधिकतर तीसरी पुत्रियों ने इस ‘मोस्ट अनवांटेड’ टैग को झुठलाया है, प्रत्येक क्षेत्र में सबको मात देकर ‘मोस्ट वांटेड’का ताज धारण किया है।
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-वीर विनोद छाबड़ा
06 May 2015 Mob 7505663626
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