-वीर विनोद छाबड़ा
चिड़िया! हां, जानी-पहचानी गौरिया । अब इसके दर्शन दुर्लभ हैं।
एक ज़माना था जब ढेरों दिखती थी। बिजली और टेलीफोन की लाइव लाइनों पर दूर तक एक
लाइन से बैठीं दिखती थीं। मुंडेरों पर,
खिड़कियों पर और आंगन में कपड़े सुखाने के लिए बंधी रस्सी पर भी
चिड़ियां।
मां खाना परोसती तो अनेक चिड़ियां चीं-चीं करके मंडराने लगती। मैं रोटी का
बड़ा टुकड़ा तोड़ता और फिर उस टुकड़े के कई टुकड़े। चिड़ियों की और फ़ेंक देता। एक साथ कई
चिड़ियां चीं-चीं करते हुए झपट्टा मारती। पल भर में सारे टुकड़े साफ।
मां कहती - तू खाना खा। स्कूल जाने में देर हो जायेगी। इन चिड़ियों को तो स्कूल
जाना नही। पेट नहीं भरता इनका।
फिर मां कटोरा भर आटे की छान आंगन में रख देती। सारी की सारी चिड़ियां उड़ कर उधर
चली जाती।
घर से स्कूल जाने के रास्ते और फिर स्कूल में ढेरों चिड़ियां इधर-उधर बैठी दिखती।
कभी-कभी ऐसा भी होता कि मास्साब पढ़ा रहे होते और मैं ऊपर रोशनदानों में बैठी चिड़ियों
के कार्यकलाप देख रहा होता।
मास्साब डपटते थे - ये चिड़ियां इम्तिहान पास कराने नहीं आयेंगी।
दुमंजिले पर घर। उस में एक स्टोर। बाहर की ओर खिड़की। कभी-कभार ही खुलती। उसका कांच
थोड़ा सा टूटा हुआ। चिड़ियों के आने जाने के लिए पर्याप्त रास्ता। किताबों से भरे घर
में और किताबें रखने की जगह कम पड़ गयी तो पिताजी ने स्टोर में एक रैक टांग कर पुस्तकें
भर दीं। पुस्तकों के पीछे एक जोड़े ने तिनका-तिनका जोड़ कर घौंसला बनाया। मैंने थोड़ी
सूखी घास-फूस लाकर खिड़की पर रख दी। ताकि चिड़िया को तिनका बीनने दूर न जाना पड़े।
फिर वो दिन भी आया कि चिड़िया का घौंसला पूर्ण हुआ। उसने अंडे दिए। कुछ दिन बाद
उसमें से तीन बच्चे निकले। चिड़िया कहीं से दाना-दुनका चुग कर लाती। बच्चे मां की आहट
पाते ही चीं-चीं करके शोर मचाना शुरू कर देते। बच्चे थोड़ा बड़े हुए। चिड़िया मां ने उन्हें
उड़ना सिखाया। चिड़िया का चिड़ा कुछ नहीं करता था। बस बैठा देखा करता था।
एक दिन देखा तीन की जगह दो ही बच्चे हैं। एक पता नहीं कहां चला गया। फिर वो दिन
आया, बच्चे बड़े हो गए। उन्होंने अपना जोड़ा बना लिया। पुराना जोड़ा जाने कहां चला गया।
मैंने स्टोर में कील ठोंक कर एक तस्वीर टांग दी। नए जोड़े ने इसी तस्वीर के पीछे घौंसला बनाना शुरू
किया।
फिर एक दिन ट्रेजडी हो गई। चिड़िया जाने कैसे कमरे में घुस गयी और इससे पहले कि
मैं पंखा बंद करता, चिड़िया जोर से पंखे से टकराई। सिर और धड़ अलग-अलग जा गिरे । मैंने कांपते हाथों
से उन्हें बटोरा। सिसकते हुए एक कपडे में लपेटा और सामने मैदान के एक कोने में दफना
दिया। चिड़िया का चिड़ा कई दिन तक गुम-सुम रहा।
उस दिन मैं स्कूल से लौटा तो मां ने बताया कि चिड़ा भी पंखे से टकरा कर मर गया।
मां ने उसे एक कपडे में लपेट कर आंगन के एक कोने में रखा हुआ था। मेरी आंखों के किनारे
नम हो गए। उसे भी उसकी चिड़िया की बगल में दफना दिया।
घर लौट कर पहला काम यह किया कि टूटे हुए शीशे पर एक मोटा गत्ता फसा दिया। लेकिन
इसके बावजूद चिड़ियां कमरे में घुस कर पंखे से टकरा कर मरती रहीं। इधर पंखों की संख्या
बढ़ती रही और उधर पेड़ों के साथ-साथ चिड़ियों की संख्या भी कम होती रही।
आज मुझे दूर-दूर एक भी चिड़िया नहीं दिखाई देती है। पेड़ भी कट गए।
मैं पिछले
कई महीनो से एक तसले में पानी और चिड़ियों के चुगने वाला दाना डाल रहा हूं। लेकिन चिड़िया
नहीं आती।-----
-वीर विनोद छाबड़ा
03 May 2015 mob 7505663626
D-2290, Indira Nagar, Lucknow-226016
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