Tuesday, May 19, 2015

बिन चाय सब सून!

-वीर विनोद छाबड़ा
अभी अभी एक बढ़िया प्रोग्राम भारी मन से अधूरा छोड़ से लौटा हूं।
फेस बुक के कई वो मित्र वहां मिले जिन्हे देखने की बड़ी तमन्ना थी। ढेर बातें नहीं हो पायीं। वज़ह वहां चाय का इंतेज़ाम नहीं था। बिना चाय सर दुखता है। मन बेचैन होता है। उठ कर बाहर गया। आस-पास देखा। एक ढाबा दिखा। लेकिन उसके सामने कूड़ाघर था। लाखों की संख्या में रोग की वाहक मक्खियां बहुत भिनभिना रही थी। ६४ प्लस को दृष्टि में रखते हुए रिस्क लेना ठीक नहीं है। सच बताऊँ आदतन जेब में पर्स रखना भी भूल गया था। कही आजू-बाजू जाकर भी नहीं पी सकता था।
हां, तो मैं चाय पर बात कर रहा था। चाय से पहले सिगरेट और बाद में फिर एक सिगरेट। एक ज़माना था, दिन में चार-पांच बार तो यह सिलसिला चलता ही था। अब सिगरेट तो छूट गयी, लेकिन चाय को अलविदा नहीं कहा। दिल ने कहा, जीने के लिए कुछ तो रखो यार। 
चाय की इंतेहा की शुरुआत हाईस्कूल की परीक्षा से हुई। देर रात तक पढ़ना। बीच-बीच में चाय पॉजिटिव एनर्जी प्रदान करती रहती।
यूनिवर्सिटी पहुंचे तो आदत बन गयी। दिन में छह-सात चाय तो हो ही जाती थी।
कभी चाय की तलब हमें दस किलोमीटर दूर अमौसी एयरपोर्ट तक ले जाती थी। छुट्टी के रोज़ बहुत बोरियत होती थी। चार दोस्त जमा हुए। चलो वीरेंदर के घर अमौसी। और कुछ गपशप भी हो जाएगी। साइकिल उठाई और चल दिए। ये माताश्री लोग चाय बढ़िया बनाती हैं। एक बार नहीं दो तीन बार पिलाती हैं, पूरे दिल से। वीरेन्द्र की माताश्री कहती थीं - हम लोग शहर से इत्ती दूर बैठे हैं। कोई आता ही नहीं यहाँ तो। तुम लोग आये हो तो अच्छा लगता है।
यूनिवर्सिटी के दिनों में डिनर के बाद विजय वीर सहाय के मॉडल हाउस स्थित घर हम कुछ मित्र कंबाइंड स्टडी के लिए बैठते। रात काफ़ी हो जाती। एक बार तो सहायजी पिला देते थे। अगली चाय के लिए करीब आधा किलोमीटर अमीनाबाद के अब्दुल्लाह टी स्टाल तक जाना पड़ता। यह स्टाल हम जैसे निशाचरों के लिए ही रात भर चलता था।
यों मैं लखनऊ रेलवे स्टेशन के ठीक सामने एक रिहाइशी मल्टी स्टोरी में २२ साल रहा। यह एरिया २४x७ चलता था। चाय तो मिल ही जाती थी।
यूनिवर्सिटी के बाद भटकना नहीं पड़ा। बल्कि पढाई के दौरान ही नौकरी मिल गई। मित्र मज़ाक में कहते थे -डायरेक्ट प्लेसमेंट मिल गया। वास्तव में बेमन से एक एग्जाम में बैठे। घर से सिर्फ चाय ही पीकर चले थे। एग्जाम शुरू होने में भी टाइम था। एक ढाबे में चाय पी ली। पहली और सेकंड शिफ्ट में दो घंटे का गैप हुआ। उसी ढाबे पर बैठे-बैठे समोसे के साथ दो चाय पी लीं। दो दिन तक यह सिलसिला चला। पांच महीने के बाद कॉल लेटर भी आ गया। इसका संपूर्ण श्रेय हम चाय को ही देते हैं।
दफ़्तर में भी हमने खूब चाय पी। एसिडिटी कभी नहीं हुई। क्योंकि पानी भरपूर पीते रहे। चाय पी भी और पिलाई भी। ओवर ए कप ऑफ़ टी कई समस्याओं का निदान तलाश किया।
अपने उच्चाधिकारियों को भी हमने अपने 'मन की बात' बता रखी थी कि अगर किसी मुद्दे पर चर्चा के लिए बुला रहे हैं तो ख्याल रखियेगा कि दस मिनट बाद चाय ड्यू हो जाती है। हमें ख़ुशी है कि एक छोड़ कर किसी ने मुझे निराश नहीं किया।
लेखन प्रक्रिया के दौरान  भी देर तक जगना पड़ता था। और आज भी कभी-कभी होता है कि डिनर के बाद फेस बुक के सामने बैठे। मस्त आईडिया आया। बज गए ढाई-तीन। इस दौरान एक चाय तो बनती ही है।
यों यह बता दूं कि सुबह-शाम की कस्टमरी चाय के अलावा जितनी बार चाय मैं पीता हूं, खुद बना कर। मेमसाब के माथे पर सलवटें नहीं पड़ने देता।
अपने दोस्तों को भी चाय बना कर पिलाता हूं। और हाँ, कड़क चाय। अदरक और मसाला उपलब्ध होता है तो वो भी मिक्स कर देता हूं। अच्छा लगता है।
आइये कभी। अगर नीबू की चाय के शौक़ीन हैं तो नीबू लेते आइयेगा। हमारे घर यह अक्सर नहीं मिलता। कुछ तो कमी होनी चाहिए न! 
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19-05-2015  


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