-वीर विनोद छाबड़ा
कई साल पहले, शायद १९७४. मैं और मेरा दोस्त मन्ना दिल्ली से लौट रहे थे। बलां की गर्मी। नज़ारा
कुछ यूं था.…
लखनऊ मेल में तिल रखने की जगह नहीं है। बामुश्किल जनरल में किसी तरह घुस पाये।
फिर हमने कुछ नहीं किया। भीड़ हमें ठेलती रही। जवान थे। सब बर्दाश्त कर ले गए। बाथरूम
के पास पैर टिकाने जगह मिल पायी। मुरादाबाद आते-आते भीड़ थोड़ी छंटी। हमें टॉयलेट के
पास तनिक बैठने की जगह मिल गयी।
ट्रेन के पहियों की गड़गड़ाहट। ट्रेन के वेग से हवा को काटती आवाज़। खुली खिड़कियां।
अगल-बगल बैठे एक-दूसरे तक को नही सुन पा रहे हैं।
सामने एक नवब्याहता जोड़ा बैठा है। उनकी पोषाक यह भी बता रही है कि कस्बाई पृष्ठभूमि
से हैं। दुल्हन गज़ भर घूंघट में है। गौर किया कि दुल्हन का सिर तेज़-तेज़ हिल रहा है।
शायद घूंघट के भीतर दुल्हन ऊंचा-ऊंचा कुछ बोल रही रही है। क्या कह रही है? शोर में कुछ सुनाई
नहीं दे रहा है। असहाय सा दिखता दुल्हा दोनों हाथ के इशारे से दुल्हनिया से शांत रहने
अपील कर रहा है। परंतु दुल्हन ज़िद पकडे है। उसका सिर ज्यादा तेज़ी से दायें-बायें और
ऊपर-नीचे होने लगा। शायद ट्रेन की रफ़्तार से मुकाबला कर रही है। उसकी नाराज़गी का कारण
इतनी भीड़ में सफ़र करना हो सकता है या फिर उसकी मर्ज़ी के विरूद्ध ससुराल जाने की विवशता।
हम नवब्याहता जोड़े की रूठा-रुठौअल का ये नज़ारा देख मुस्कुरा रहे हैं। बढ़िया टाइम
पास हो रहा है। सिर्फ हमारी ही नहीं दर्जन भर दूसरी आंखें भी उन पर टिकी हैं। और वो
दोनों बेचारे जाने-अनजाने टैक्स-फ्री एंटरटेनमेंट की सामग्री बने हैं। तरस आता है।
अचानक मन्ना जोर-जोर से हंसता है।
मेरे चेहरे पर सवालिया निशान की रेखाएं उभरीं। मन्ने ने सामने लिखी इबारत की ओर
इशारा किया।
मैंने मोटे शीशों वाला अपना चश्मा साफ़ किया। बामुश्किल पढ़ पाया।
लिखा था - सावधान! अपने सामान की हिफाज़त स्वयं करें…ट्रेन में ज्वंलनशील
सामान लेकर चलना सख्त मना है। नवब्याहता जोड़ा ठीक उसी के नीचे बैठा है।
मुझे भी ज़ोर की हंसी आई।
कुछ और लोग भी हमारे हंसने का कारण समझ हंसने लगे।
दुल्हे को यों तो अहसास था कि वो सबके निशाने पर है। लेकिन सबको इस तरह हंसते देख
चौकन्ना हो गया। दुल्हन भी कुछ सनक गयी। उसका सिर हिलना बंद हो गया। दुल्हा समझ गया
कि ऊपर कुछ लिखा है। उसने खड़े होकर पढ़ा और फिर वो भी जोर-जोर से हंसने लगा। फिर उसने
दुल्हन के कान में कुछ कहा। दुल्हन का सिर फिर जोर-जोर से हिलने लगा। दुल्हे ने इशारे
से बताया - हंस रही है।
तभी ट्रेन रुकी। बरेली है।
चाय, चाय, चाय। आवाज़ सुन कर च्यास लग आई। मन्ने ने चाय वाले को बुलाया। सबको चाय पिलाई। लगा
हम सब एक परिवार हैं।
ट्रेन चली। थोड़ी देर में ट्रेन के हिचकोले लेती दुल्हन अपने दुल्हा के कंधे पर
सिर कर रख कर सो गयी।
हम एक-दूसरे को देख कर मुस्कुराये। फिर जाने कब हमारी भी आंख लग गयी।
चाय, चाय, चाय।
हमारी नींद खुली। सवेरा होने को था। हरदोई है।
सहसा हमारी निगाह सामने गयी। वो नवब्याहता जोड़ा वहां नहीं था। जाने किस स्टेशन
पर उतर गया?
बगल में बैठे मुसाफ़िर ने हमारे चेहरे पर लिखा प्रश्न पढ़ लिया। बोला -शाहजहांपुर।
उस घटना को ४० साल से ज्यादा हो चुके हैं। मन्ना अब इस दुनिया में नहीं है। जब
याद आती है अकेले ही हंस लेता हूं।
मित्रों आज आपसे भी शेयर कर रहा हूं। हंसी न आये तो मुस्कुरा हौले से मुस्कुरा
देना।
-वीर विनोद छाबड़ा-----
09-05-2015 mob 7505663626
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