-वीर विनोद छाबड़ा
०२ मई १९२१ को जन्मे
सत्यजीत रे की गिनती विश्व की चोटी के फिल्मकारों में है। १९७८ के बर्लिन फिल्म फेस्टिवल
में उन्हें दुनिया के तीन सर्वश्रेष्ठ निर्देशकों में बताया गया।
वो पहले फ़िल्मकार थे
जिन्होंने सिनेमा को कैमरे की आंख से देखा। मेलोड्रामा नहीं भरा। प्रभाव पैदा करने
के लिए संगीत को लाऊड नहीं किया। इंसान के अंतर्द्वंत को उसकी काया के बहुत भीतर तक
घुस कर देखा-पढ़ा और कैमरे की आंख से उजागर किया। दृश्य लगभग संवादहीन रहे।
'पाथेर पांचाली'
(१९५५) उनकी पहली फिल्म थी जिसने हॉलीवुड में धूम मचा दी। कुछ आलोचक भी रहे। एक
ने कहा कि उन्हें हाथ से दाल-भात खाता किसान नापसंद है। इसी श्रंखला के अंतर्गत अपराजित(१९५६)
और अपुर संसार (१९५९) पेश की। इन्हें भी अंतराष्ट्रीय स्तर पर भरपूर ख्याति मिली।
रे किसी एक जगह ठहरे
नहीं। न विषय पर और न ही पात्रों पर। मध्य-वर्गीय समाज भी उनका विषय था और गरीबी-भूख-बेकारी
भी। बच्चे और अबोध उनके प्रिय रहे और जासूसी के प्रति लगाव ने भी रे को खासा जिज्ञासू
बनाया।
स्वयं ख्याति प्राप्त
लेखक होने के नाते उनकी किस्सागोई अद्भुत थी। बच्चों के बहुत लिखा। प्रशंसक उनके लेखन
की तुलना अंतोव चेखव और शेक्सपीयर से करते हैं। बहुत अच्छे ग्राफ़िक डिज़ाइनर भी रहे।
कई विश्वविख्यात पुस्तकों के मुखपृष्ठ डिज़ाइन किये। इनमें मुख्य हैं डिसकवरी ऑफ़ इंडिया
और मैनईटर्स ऑफ़ कुमायूं।
निर्देशन के अलावा
सिनेमा के हर विभाग में उनका दखल रहा, चाहे संपादन हो या
संगीत या छायांकन। अपनी ज्यादातर फिल्मों का स्क्रीनप्ले उन्होंने स्वयं लिखा। उन्होंने ३७ फ़िल्में
निर्देशित की। सिर्फ मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित 'शतरंज के खिलाड़ी'
और दूरदर्शन के लिए बनायी 'सद्गति' को छोड़ कर उनकी फिल्मों
की भाषा बंगाली थी। इन दोनों हिंदी फिल्मों को वैसी ख्याति नहीं मिली जिसके लिए रे
विख्यात हैं।
फिल्म को कला और कैमरा
इसका माध्यम मानने के माहिर विश्व के ख्याति
प्राप्त अकीरा कुरासोवा, अल्फ्रेड हिचकॉक, चार्ल्स चैपलिन,
डेविड लीन, फेडरिको फेलिनी, जॉन फोर्ड ,
इंगमार बर्गमन की पंक्ति में रे को रखा गया।
जलसाघर, देवी, तीन कन्या,
चारुलता, नायक, अशनि संकेत, कापुरुष ओ महापुरुष,
घरे बाहरे, अभिजान, महानगर, गुपी गायें बाघा गायें,
प्रतिद्वंदी, सीमाबद्ध, सोनार केला, जॉय बाबा फेलुनाथ आदि
रे की अन्य श्रेष्ठ फ़िल्में थी। उन्हें और उनकी फिल्मों को रिकॉर्ड बेशुमार अंतर्राष्ट्रीय
और राष्ट्रीय पुरूस्कार मिले। २३ अप्रैल १९९२ को मृत्यु से कुछ दिन पूर्व उन्हें जग-प्रसिद्ध
एकेडेमी पुरूस्कार से नवाजा गया। फिल्मों में अपूर्व योगदान के लिए १९८४ में प्रतिष्ठित
दादा साहब फाल्के और १९९२ में भारत रतन दिया गया।
कुछ विवाद भी जुड़े
रे के साथ। १९६७ में उन्होंने कोलंबिया पिक्चर्स के लिए 'दि एलियंस'
की स्क्रिप्ट लिखी। पीटर सेलर्स और मर्लोन ब्रांडो को साइन भी किया गया। मगर अचानक
कोलंबिया ने रूचि लेनी बंद कर दी। निराश होकर रे भारत लौट आये। रे को हैरानी हुई जब
उन्होंने इसी स्क्रिप्ट पर १९८२ में स्टीवन स्पीलबर्ग की E.T. देखी। इसमें उन्हें
कोई श्रेय नहीं दिया गया। शिकायत करने पर कहा गया इसका कोई संबंध उनकी कथित स्क्रिप्ट
से नहीं है। रे की दिली ख्वाईश महाभारत के साथ-साथ EM Forster के नावेल A
passage to India पर फिल्म बनाने की भी रही, जिसे बाद में डेविड
लीन ने फिल्माया।
जापान के अकीरा कुरुसोवा
से रे बेहद प्रभावित रहे। कुरुसोवा भी ज़बरदस्त प्रशंसक रहे। उनका कहना था - रे की फिल्म
के बिना वही दशा है जैसे बिना सूरज और चांद की धरती।
रे के घोर आलोचकों
की भी कमी नहीं रही है। देश की गरीबी और भूख को बेचने का आरोप लगा। बुर्जुआ मध्यवर्गीय
समाज के समर्थक रहे। कहा गया कि रे पात्रों का महज़ चित्रण करते रहे। उनके अंतर्द्वंद को किसी तार्किक
समाधान की ओर नहीं ले गए। फ़िल्में मेलोड्रामा से वंचित रहीं। गति बहुत धीमी और उबाऊ।
लेकिन यह सच्चाई अटल है कि भारतीय सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय छवि प्रदान
करने में सबसे बड़ा योगदान सत्यजीत रे को है। देश उनका सदैव ऋणी रहेगा।
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-वीर विनोद छाबड़ा
०२-०५-२०१५ मो. ७५०५६६३६२६
डी० २२९० इंदिरा नगर
लखनऊ-२२६०१६
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