Saturday, April 1, 2017

हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल थी क्लासिक 'पड़ोसी'

- वीर विनोद छाबड़ा 
भारतीय सिनेमा के इतिहास को खंगालते हुए जब क्लासिक फिल्मों का ज़िक्र होता है तो व्ही शांताराम की 'पडोसी' (१९४१) का नाम ज़रूर लिया जाता है। प्रभात फिल्म्स के साथ 'दुनिया न माने' (१९३७) और 'आदमी' (१९३९) के बाद यह उनकी तीसरी फिल्म थी जिसने स्थापित सामाजिक मान्यताओं में छुपी बुराइयों को चुनौती दी थी। हालांकि ये तीनों ही फ़िल्में हिट थीं लेकिन 'पड़ोसी' को विशिष्ट स्थान मिला। यह हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल फिल्म थी।
लेखक विश्राम बेडकर की दृढ़ मान्यता थी कि बावज़ूद धार्मिक रीति-रीवाज़ अलग थे लेकिन जहाँ तक सामाजिक सदभावना की बात होती है वहां हिंदू-मुस्लिम भाषा एक है, संस्कृति और जीने की पद्धति भी एक है। एक-दूसरे के त्यौहार मिल कर मनाते हैं। और फसलों के गीत भी मिल कर गाते हैं।
संक्षेप में 'पड़ोसी' की कहानी यह है कि एक बस्ती में दो बुज़र्ग हैं। एक का नाम मिर्जा और दूजा पंडित है। उनकी दोस्ती एक मिसाल है। बस्ती के सभी लोग उन्हें आदर देते हैं और अपने छोटे-मोटे विवाद में उनसे ही दखल देने को कहते हैं और उनका फैसला मानना अनिवार्य भी होता है। दिन भर शतरंज में घुसे रहने के बावज़ूद एक-दूसरे के परिवार और बच्चों का ख्याल रखना भी उनकी दिनचर्या में शामिल है। लेकिन इस हंसती-खेलती दुनिया में एक दिन एक दुष्ट आदमी प्रवेश करता है। ओंकार नाम का एक अमीर उस बस्ती में एक बांध बनाना चाहता है। बस्ती वालों को यह मंज़ूर नहीं। उन्हें डर है कि बांध के कारण उन्हें अपने पुरखों की ज़मीन से हाथ धोना पड़ेगा। खेती कहां होगी? खाएंगे क्या? नुकसान भरपाई से मिला धन कितने दिन चलेगा
V. Shantaram
यों भी बांध की व्यवहारिकता भी उस स्थान पर नहीं है। बांध के टूटने की आशंका हर पल बनी रहेगी। बांध टूटा नहीं कि प्रलय आयेगी। सैकड़ों लोग डूब जाएंगे। बस्ती वालों की दीवार मिर्ज़ा और पंडित की दोस्ती है। ओंकार के सारे जतन जब माटी हो जाते हैं तो वो कुचक्र रचता है। मिर्ज़ा और पंडित उसमें फंस जाते हैं। मिर्ज़ा का घर फूंक दिया गया। इलज़ाम आता है पंडित और उसके बेटे पर। हालांकि मिर्ज़ा का दिल नहीं मानता है, लेकिन बस्ती वालों के दबाव में उसे मानना पड़ता है। बस्ती की एकता छिन्न-भिन्न हो जाती है। ओंकार इसका लाभ उठाता और देखते ही देखते बांध तैयार हो जाता है। लेकिन कुटिलता और अव्यवहारिकता की नींव पर खड़ा बांध टिक नहीं पाता और ढह जाता है। लोग डूबने लगते हैं। मिर्ज़ा और पंडित सारे गिले-शिकवे भूल कर एक-दूसरे को बचाने को दौड़ पड़ते हैं। जब पानी उतरता है तो दोनों के मृत शरीर मिलते हैं। उस समय उन्होंने एक-दूजे का हाथ बहुत मज़बूती से पकड़ा होता है।

निदेशक व्ही शांताराम बहुत खूबसूरती, प्रभावी और स्वीकार्य ढंग से अपनी बात रखते हैं कि हिंदू-मुस्लिम की एकता के बीच खलल सदैव बाहरी शक्तियां डालती हैं। वो पंडित की भूमिका मज़हर खान को देते हैं और मिर्ज़ा के लिए गजानन जागीरदार को उतारते हैं। यह शांताराम जी की सेक्युलर सोच का प्रमाण है। फ़िल्म प्रत्यक्षा अंग्रेजों की फूट डालो और मौज करो की कुटिल नीति का भी विरोध करते हुए मोर्चा खोलते हुए भी दिखी। फिल्म का क्लाइमैक्स भी क्लासिक है। टूटता हुआ बांध और बाढ़ के दृश्य वास्तविकता का आभास देते थे। ये सबूत था कि शांताराम जी की कल्पना और शिल्प कौशल की श्रेणी बहुत उच्चकोटि की थी। चालीस के दशक में यह किसी अजूबे से कम नहीं था। दुनिया के महान विदूषक चार्ली चैपलिन भी प्रशंसा कर गए थे।
लेकिन बहुत अजीब लगता है और लज्जा भी आती है कि पिछले ७७ साल में कई फिल्मों के रीमेक बने और सीक्वल भी। लेकिन किसी ने हिंदू-मुस्लिम की पर्याय 'पडोसी' का रीमेक बनाने की न ज़हमत की और न हिम्मत दिखाई। 
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