Friday, April 21, 2017

परवरिश में कमी रह गयी

- वीर विनोद छाबड़ा
हमारे एक साथी हैं, साधुराम जी। जैसा नाम, वैसा ही स्वभाव और दिल भी। कहते है, ज़िंदगी में हंसी और शांति से बड़ी कोई नेमत नहीं।
बावजूद इसके कि साधुराम की एक छोटी सी परचून की दुकान थी, ज़िंदगी में जो चाहा उन्होंने पाया। अच्छी पत्नी उर्मिला। एक नन्ही प्यारी बेटी हर्षा। और एक छोटा सा मकान। कुल मिला कर अच्छी कमाई। लेकिन जितना पाया उतना गंवाया भी। उर्मिला एक एक्सीडेंट में चल बसी। जाते-जाते तीन साल की हर्षा को झोली में डालते हुए कह गयी - पहाड़ सी ज़िंदगी अकेले नहीं बिता पाओगे। दूसरी शादी कर लेना। लेकिन हर्षा का ध्यान रखना तुम्हारी पहली ज़िम्मेदारी है।
लेकिन साधुराम ने उर्मिला की याद को बनाये रखने खातिर ताउम्र दूसरी शादी नहीं की। मां बन कर हर्षा को पाला। उसे डॉक्टर बनाया। उसका सहपाठी था, डॉ अरविंद। उसे वो बहुत पसंद करती थी। दोनों की बड़ी धूमधाम से शादी भी की। धन्य हो गए साधुराम जी। जैसा चाहा था उससे भी बढ़कर निकला दामाद। बिलकुल देवता समान। शादी के बाद दोनों हैदराबाद चले गए। बहुत बड़े अस्पताल में जॉब मिल गयी।
बेटी-दामाद ने आग्रह किया - पापा, हमारे साथ रहिये।
लेकिन साधुराम ने मना कर दिया। तुम दोनों की ज़िंदगी में मेरा क्या काम? मैं यहां लखनऊ में ठीक हूं। अच्छे मित्र हैं, पड़ोसी और एक बेहद फ़िक्र रखने वाला किरायेदार भी। और नाते-रिश्तेदार भी तो सब यहीं हैं।
समय बहुत अच्छा गुज़रता रहा। साधुराम करीब पचहत्तर साल के होने को आ गए। उन्हें लगा कि उम्र का यह वो पड़ाव है, जब उन्हें बेटी-दामाद के पास रहना चाहिए। सब कुछ तो वही है। बाकी बचा प्यार उस पर लुटा देना चाहिए। ऊपर जाकर उर्मिला को हिसाब भी तो देना होगा। उन्होंने वसीयतनामा तैयार किया, सारी संपत्ति बेटी-दामाद के नाम, चल और अचल दोनों ही।
और पहुंच गए हैदराबाद। बेटी-दामाद और उनके दो बच्चे - एक बेटा और एक बेटी - उन्हें रिसीव करने एयरपोर्ट आये। बहुत खुश हुए वो सब। तीन बेडरूम का फ्लैट था उनका। एक में बेटी-दामाद, एक में बच्चे और एक में साधुराम एडजस्ट हो गए। कुछ दिन सब कुछ बहुत अच्छा चला।
एक दिन साधुराम ने हर्षा को अपनी मंशा बताई कि सोचता हूं ज़िंदगी के बाकी दिन तुम लोगों के साथ ही बिता दूं। इस पर बेटी-दामाद ने बहुत ख़ुशी ज़ाहिर की।
कुछ दिन और गुज़रे। बेटी और दामाद दोनों को अमेरिका में जॉब मिल गयी, एक बहुत बड़े हॉस्पिटल में। बच्चों के अच्छे स्कूल में एडमिशन का मिलना भी तय हो गया। लेकिन जब वीज़ा के लिए आवेदन का वक़्त आया तो बेटी ने कहा - सॉरी पापा। आप हमारे साथ नहीं चल सकते। अभी तो हॉस्पिटल ने छोटा सा दो कमरे का फ्लैट प्रोवाईड किया है। इतने में प्राईवेसी मैंटेन करना बहुत मुश्किल है। और फिर हॉस्पिटल ने सर्विस कॉन्ट्रैक्ट में मां-बाप को शामिल नहीं किया है। मजबूरी है। आपको बाद में बुला लेंगे, जब हम अपने बड़े से घर में शिफ्ट होंगे। तब आप को हम एक ओल्ड ऐज रिसोर्ट में शिफ्ट किये देते हैं। वहां आप जैसे बहुत लोग हैं। मन लगा रहेगा।

यह सुन कर साधुराम की आंखें छलछला आईं। कुछ नहीं बोले। अगले दिन की पहली फ्लाईट से वो लखनऊ लौट आये। मित्र, रिश्तेदार, पड़ोसी और किरायेदार - सब बहुत खुश हुए। किरायेदार ने कहा - अंकल, अब से आप का ख्याल हम रखेंगे। समझिये हमने आपको गोद ले लिया।
यह सुन कर सब हंस पड़े। किरायेदार की छोटी सी पोती नैना उनकी गोद में बैठ गयी - दादू, आप अब हमें छोड़ कर कभी मत जाना।
साधुराम कुछ दिन बाद अचानक हमारे घर आये। हमारे हाथ में एक लिफ़ाफ़ा थमाया - न जाने कब ज़िंदगी की शाम हो जाये। इसमें मेरी रजिस्टर्ड वसीयत की एक कॉपी है। मेरा हर तरह से ख्याल रखने वाले किरायेदार उमेश मेहता, उसकी पत्नी जाह्नवी, उसके बेटे, बहु और उसकी बेटी नैना के नाम बराबर-बराबर।
फिर उन्होंने ऊपर की ओर देखा - माफ़ करना उर्मिला, मेरी परवरिश में कुछ कमी रह गयी।
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Published in Prabhat Khabar dated 20 April 2017
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mob 7505663626


3 comments:

  1. सही बात. आजकल लोग पैसे के पीछे काफी भागने लगे हैं. इसी दौड़ में रिश्ते नाते सब छूटते से जा रहे हैं. इसलिए आजकल सब को स्वालम्बी होना जरूरी है.

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’ट्वीट से उठा लाउडस्पीकर-अज़ान विवाद : ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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