- वीर विनोद छाबड़ा
Devika Rani |
दिलीप कुमार ने अपना कैरियर 1944 में बॉम्बे टॉकीज़ से शुरू किया
था। उन दिनों उन्हें बारह सौ रूपये महीना पगार मिलती थी। बढ़िया नौकरी थी। काम सिर्फ़
एक्टिंग करना था। शुरुआती दो महीने तो उन्हें काम ही नहीं दिया गया। मुफ़्त की खाते
रहे। कहा गया, बस देखते रहो कौन कैसे काम करता है। स्टूडियो के मौहाल के मुताबिक ढालो खुद को।
उनकी मालकिन थीं देविका रानी। फिल्म इंडस्ट्री में उनकी तूती
बोलती थी। बहुत कड़क और अनुशासन प्रिय। वो खुद भी बहुत अच्छी एक्ट्रेस थीं। बॉम्बे टॉकीज़
की ज्यादातर फ़िल्मों की नायिका वही होती थीं। दिलीप कुमार को उन्होंने ने ही पसंद किया
था।
राजकपूर भी बॉम्बे टॉकीज़ में थे। दिलीप और राज दोनों का ताल्लुक
पेशावर से था और उनके पारिवारिक संबंध भी थे। लिहाज़ा उनमें दोस्ती भी थी। जब भी मौका
मिलता था तो फ़िल्म देखने निकल लिए। लेकिन एक ही थिएटर में कभी नहीं बैठे। जायका अलग
अलग था। एक दिन राजकपूर फ़िल्म देखते पकड़े गए। सौ रूपए जुरमाना लग गया। दिलीप कुमार
खुश कि वो बच गए।
Dilip Kumar |
लेकिन दहशत तारी रही। लिहाज़ा कुछ दिन तक फ़िल्म देखना बंद रहा।
महीना गुज़र गए। दिलीप कुमार ने सोचा कि अब तो बहुत दिन हो गए। देविका जी के ज़हन से
अब तक सब कुछ निकल चुका होगा। यानी रात गई, बात गई। एक दिन मौका मिला और जा बैठे सिनेमा हाल में। शो ख़त्म
हुआ। बड़े खुश खुश बाहर निकले। मगर सामने के नज़ारे ने उनके होश उड़ा दिए। देखा देविका
रानी अपने कुछ मेहमानों के साथ खड़ी हैं,
फिल्म का अगला शो देखने आयीं थीं। हक्का-बक्का दिलीप कुमार से
उन्होंने कुछ नहीं कहा, अपितु बहुत खुश होकर अपने मेहमानों से मिलाया - ये खूबसूरत नौजवान हैं यूसुफ़ खान
उर्फ़ दिलीप कुमार, हमारी अगली फ़िल्म के हीरो।
फिर उन्होंने अपने ड्राईवर से कहा - साहब को स्टूडियो छोड़ कर
लौटो।
दिलीप कुमार ने सोचा कि जान बची, लाखों पाए। लेकिन जब
उन्हें महीने के आख़िर में पगार मिली तो उसमें सौ रूपए कम थे।
बॉम्बे टॉकीज़ में एक्टर्स को बहुत सलीके से रहना पड़ता था, चाहे वो हीरो हो या
हीरोइन या किसी भी स्तर का एक्टर। इसीलिए सब ढंग के कपड़े पहन कर आते थे। देखने में
जेंटल दिखें। ओवर मेकअप की इज़ाज़त कतई नहीं थी। दिलीप कुमार को इसकी जानकारी नहीं थी।
हालांकि वो सफ़ेद कपड़ों के शौक़ीन थे और आमतौर पर इसी ड्रेस में रहते थे। लेकिन उस दिन
उन्हें जाने क्या सूझी कि रंगीन फूलदार शर्ट पहन कर स्टूडियो पहुंच गए। फ़ौरन सौ रुपया
जुरमाना लग गया।
दिलीप कुमार चूंकि ख़ुद मालकिन देविका रानी जी की पसंद थीं, इसलिए अक्सर उन्हें
और दूसरे खास लोगों, जिसमें अशोक कुमार भी शामिल हुआ करते थे, को चाय पर गपशप के लिए अपने ऑफिस में बुला लिया करती थीं। देविका
रानी सिगरेट का लगातार सेवन किया करती थीं। उस दिन दिलीप कुमार बिना इज़ाज़त लिए उनकी
डिब्बी से एक सिगरेट निकाल कर पीने लगे। देविका रानी ने पूछा - तुम सिगरेट अक्सर पीते
हो।
दिलीप कुमार ने जवाब दिया - जी नहीं, कभी कभी बस यूं।
अगली पगार में दिलीप को फिर सौ रूपए कम मिले। उन्होंने देविका
रानी से पूछा - उन्हें किस गुनाह के सज़ा मिली है?
देविका रानी ने कहा - ताकि सिगरेट पीने की तुम्हारी आदत न पड़े।
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