- वीर विनोद छाबड़ा
स्वभाव से अति सोशल हमारे एक मित्र बहुत परेशान हैं।
कारण यह है कि अभी कल तक उन्हें जो कार्ड मिल रहा था, उसमें लेडीज़ संगीत, तिलक, रिंग सेरिमनी, सेहरा-बंधी, बारात प्रस्थान, जनवासे में आवभगत, बारात की विवाहस्थल
हेतु रवानगी, द्वारचार, जयमाल, डिनर समारोह, विदाई और आख़िर में अगले दिन प्रीतिभोज का लंबा-चौड़ा कार्यक्रम प्रिंट होता था।
और वो बड़े फख्र के साथ सपरिवार लेडीज़ संगीत सहित प्रत्येक कार्यक्रम में सम्मिलित हुआ
करते थे।
उनकी मौजां ही मौजां तो तब होती था जब कार्ड के साथ में एक विजिटिंग कार्ड साईज़
का कार्ड भी नत्थी होता था - कॉकटेल पार्टी। अगर कार्ड न भी नत्थी हो तो भी मित्र सूंघ-सांघ
कर पहुंच ही जाते थे। आजकल तो हर घर में शादी से एक दिन पहले इस पीने-पिलाने के दौर
का फैशन ही चल पड़ा है। इसमें खास खास लोग ही बुलाये जाते हैं। कुछ इसे बैचलर पार्टी
भी कहते हैं।
हमारे मित्र का तो उसमें ज़बरदस्ती घुस जाते थे। उनका मंतव्य यह होता था - अरे भई, दुःख में पड़ोसी और
दोस्त ही काम आते हैं तो फिर सुख में क्यों नहीं भाई? यह भेद-भाव क्यों? हम तो पीयेंगे।
बहरहाल, समझ लीजिये कि घर में निमंत्रण कार्ड आया नहीं कि सोशल इंजीनियरिंग में विश्वास
रखने वाले मित्र के हफ़्ते भर के नाश्ते,
लंच और डिनर का इंतज़ाम मुफ़्त। विदा होने वाले सबसे अंतिम शख़्स
का सौभाग्य भी सदैव उन सोशल मित्र को ही हासिल होता रहा।
लेकिन अब तो ज़माना ही बदल गया है। बताईये, मित्र के घर से चार
घर छोड़ कर रहते हैं वो साहब। बीस बरस से हैं यहां पड़ोस में और कार्ड आया है, सिर्फ़ प्रीतिभोज का।
बदतमीज़ी की इंतेहा तो देखो कि विद फ़ैमिली भी नहीं लिखा है। मित्र आगबबूला हैं।
हमने कहा - अच्छा ही तो है। बचत ही बचत ही है। चार फंक्शन हैं। हर बार ड्रेस बदल
कर जाओ। हमारे पास तो फंक्शन के लिए एक ही ड्रेस है। अब रोज़ एक ही पहन कर जाएंगे तो
लोग कुछ न कुछ तो कहेंगे ही न। और यह क्या कम है कि पड़ोसी अपनी जेब से खिला रहा है।
भाई, आठ बजे का टाईम है तो हम साढ़े नौ बजे पहुंचेगे। पड़ोस में ही तो है। पैदल चले जाएंगे।
पार्किंग की भी प्रॉब्लम नहीं होगी। तब तक पार्टी पूरे शबाब पर होगी। गप-शप करो, वर-वधु को लिफ़ाफ़ा सहित
आशीर्वाद देते हुए फोटो खिंचवाओ, भोजन करो और लौट चलो। फिर ग्यारह बजे से सब टीवी पर 'तारक मेहता का उल्टा
चश्मा' का रिपीट देखो। भाई हम तो बहुत ही खुश हैं।
लेकिन सोशल
मित्र हैं कि मानेंगे नहीं, ज़रूर जाएंगे। डर बस यही लगता है कि किसी दिन दौड़ाये न
जायें - विद ऑउट कार्ड, नो एंट्री।---
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