-वीर विनोद छाबड़ा
एक सिपाही ने फलां
रसूखदार को मशविरा दिया - शीशों पर चढ़ी काली फ़िल्म उतरवा दें। यह जुर्म है।
रसूखदार ने बिगड़ कर
वज़नदार धमकी दी - देख लूंगा....वर्दी उतरवा दूंगा...
मगर कानून के रखवाले
जांबाज़ सिपाही ने काली फिल्म उखाड़ फेंकी।
खब़र पढ़ कर बंदे का
सीना गर्व से फूल गया कि आखिर क़ानून का राज क़ायम हो ही गया।
मगर दूसरे ही दिन उस
सिपाही का तबादला हो गया। सब्जबाग़ तो सिर्फ ख़्वाबों में आते हैं। काली फ़िल्म चढ़ी तमाम
छोटी-बड़ी कारें व बसें शहर की तमाम सड़कों पर पुलिस को मुंह चिढ़ाती, ठेंगा दिखाती बदस्तूर
सरपट दौड़ती फिरती हैं। लेकिन ट्रैफ़िक सिपाही को दिन में भी रतौंधी का दौरा पड़ जाता
है।
शहर के कार सजावट बाज़ारों
में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। जब चाहें लगवा लीजिये। जब कभी प्रशासन का मूड कुछ
खराब हुआ नहीं कि कोई खबरची कार बाजार को ख़बर कर देता है। उस दिन काली फिल्म,
हूटर-हार्न और लाल-नीली बत्तियां किसी कोठरी में खुद को छुपा लेती लेती हैं।
काली फ़िल्म की दीवानगी
के प्रति हमने पर्सनल सर्वे किया। पता चला कि काली फ़िल्म वाली गाड़ियों के मालिकान आमतौर
पर असामान्य जीव हैं, इनकी सोच बीमार व काली है। इसमें खासी तादाद तो जनता के लिए
और जनता द्वारा चुने लीडरों की है। काली फ़िल्म की आड़ में जनता से इसलिए मुंह छिपाए
घूमते हैं कि जनता ये न पूछे- क्या हुआ तेरा वादा, वो क़सम वो इरादा?
लीडरों के चमचों की
फौज है। जितनी मोटी और काली फ़िल्म सत्ता के गलियारों में उतनी ही ज़ोरदार धमक व ऊंची
पहुंच। गाड़ियों की बोनेट पर राजनैतिक पार्टियों के झंडे भी। माहौल के हिसाब से झंडा
बदल दिया। एक सिपाही से इस बावत पूछा तो उसका जवाब कुछ यों मिला- ये तो हमें भी मालूम
है कि इसमें किस खाल में भेड़िया है? लेकिन क्या पता,
कौन और कब वर्दी उतरवा दे?
काली फ़िल्म के मायने
ये भी हैं गाड़ी मालिक की सियासी के अलावा प्रशासन व पुलिस के वजनी महकमों में भी गहरी
पैठ है।
काली फ़िल्म अमीरों
की अमीरी के नशे के अहंकार की निशानी भी है।
कुछ निहायत भोले व
मासूम बने मिले। भई, हमें तो इल्म नहीं था कि काली फ़िल्म लगाना गुनाह है। कार सजावटवालों
ने फ्री में लगा दी तो भला क्यों मना करते? किसे फ्री का माल काटता
है? ये तो दुकानदार को ही सोचना चाहिए था।
एक साहब ने काली फ़िल्म
की ज़रूरत की हिमायत फैमिली प्राईवेसी के नाम पर की। चौराहे पर गाड़ी रुकी नहीं कि मनचले
शोहदों का झंड ताक-झांक में जुट जाता है। ये बदतमीजी कैसे बर्दाश्त करें?
कुछ को मोहल्ले के
स्वंय-भू चौधरी बने रहने के लिए काली फ़िल्म जरूरी लगती है। इन चतुर खिलाड़ियों को शहर
के उन तमाम रास्तों व चौराहों की जानकारी है जहां यातायात सिपाही तैनात नहीं है। सुबह-शाम पीक आफ़िस आवर्स
में चौराहों को जाम से बचाने में जुटे मसरूफ़ सिपाहियों के पास इतनी फुर्सत नहीं होती
कि काले शीशों वाली गाड़ियों को पकड़ने पीछे-पीछे भागें।
एक साहब ने चलती गाड़ियों
में अबलाओं पर जुल्मों की बढ़ती घटनाओं से आहत होकर खुद ही अपनी गाड़ी से काली फ़िल्म
उखाड़ दी। उन्हे सुनने को मिला- डर गए न बच्चू!
एक बड़े अधिकारी ने
बताया कि लाल-नीली बत्ती वाली एसी कारों में बैठ कर जनता के प्रति फ़िक्रमंद हाकिमों
में काली फ़िल्म उतारने के प्रति गंभीर इच्छा शक्ति नहीं है। उन्हें भय है कि कहीं ऐसा न हो कि शुरूआत
ही उनकी गाड़ी से हो।
हमें यक़ीन है कि अगर
वो समय रहते चेते तो ये काम खुद जनता कर डालेगी। मगर शायद जनता को भी तो ‘रेयर आफ दि रेयरेस्ट’
हादसे का इंतज़ार है।
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