Thursday, April 13, 2017

सफ़ारी का सफ़र

- वीर विनोद छाबड़ा
एक ज़माना था सफ़ारी का भी। शुरुआत में कोई इक्का-दुक्का। हमारे चेयरमैन साहब अक्सर सफ़ारी पहन कर आते थे। बड़े लोग, बड़ा पहनावा। लेकिन धीरे-धीरे इसका चलन इस कदर फैला कि हर तीसरा-चौथा बंदा सफ़ारी ओढ़े दिखने लगा।

हमारे दफ़्तर में तो सफ़ारीधारियों की बाढ़ सी आ गई। कुछ लोग दर्जन भर एक साथ सिलवा लेते थे और रोज़ बदल बदल कर पहना करते थे। इसका मतलब होता था कि प्रमोशन नज़दीक है।
पूर्ण समाजवाद के दर्शन होते थे उन दिनों। चेयरमैन भी सफ़ारी में और बाबू भी। बात यहीं तक रहती तो ग़नीमत थी। कई कतिपय चतुर्थ श्रेणी कर्मी भी सफ़ारी में इठलाते दिखने लगे।
सफारियों को देख हमें जाने क्यों खुन्नस रही। हमारे ख्याल से भेड़चाल थी यह। किसी अंग्रेज़ मुल्क से आया है यह सफ़ारी। ज्यादा दिन चलने वाला नहीं यह फ़ैशन।
लेकिन बकरे की मां कब तक खैर मनाती। परिवार और मित्रों का बहुत प्रेशर पड़ा। बिना सफ़ारी के हर महफ़िल में हम एक अलग-थलग प्राणी होते थे, एक दम समाज से कटे हुए। सब किसी न किसी बात पर हंस रहे होते थे। लेकिन हमें लगता था कि हम पर मानों हंस रहे हैं। हम भी नहीं चाहते थे कि लोग हमें असामाजिक प्राणी समझें। इतिहास भी हमें धारा के विपरीत चलने वालों सनकीयों के रूप में याद रखे।
सो हम भी पहुंच गए एक दिन दरजी के पास। उस वक़्त हमारी हालत युद्ध में पराजित आत्मसमर्पण किये सैनिक की भांति थी। हमें लगा दरजी भी हमारी मनोस्थिति भांप गया। मानों वो हमें देख कर व्यंग्य से मुस्कुरा रहा है, फंस गए बच्चू।
बहरहाल, हम भी सफ़ारीधारी हो गए। एक पराजित शख्स। लेफ़्ट से राईट में चले गए। साथियों ने इसे ग्रेट हृदय परिवर्तन का नाम दिया, एक असाधारण घटना। सुबह से शाम तक बधाईयों का तांता लगा रहा। ग्रैंड पार्टी भी ले ली। जितने का सफ़ारी नहीं, उससे ज्यादा का चूना लगा।
हमने इस कुल जमा तीन-चार बार ही सफ़ारी पहना। आख़िरी बार का पहना हुआ याद है। ऑफिस में लिफ़्ट का इंतज़ार कर रहे थे कि एक भद्र महिला सहकर्मी ने मुस्कुरा कर कहा - सर, बहुत अच्छे लग रहे हैं, बिलकुल हीरो। चाय तो बनती है। हम खिल उठे। उन दिनों हम जेब में टाफियां रखा करते थे। चाय की जगह फ़ौरन उनको एक टॉफी ऑफर कर दी। वो खुश हो गयी।
इधर दिल ने दिल से कहा - यार, एक महिला कह रही है तो ज़रूर कोई ख़ास बात होगी। महिलाएं किसी की झूठी तारीफ़ नहीं करतीं। दो-चार और सिलवा लूंगा।

लेकिन तभी हमने गौर किया कि वहां एक और महिला भी खड़ी थी। उसने बड़ी तीखी निगाह से हमें और उस भद्र महिला को देखा। इस महिला का इतिहास और वर्तमान रहा था, राई को पहाड़ बनाना, चूहे की दुम की तुलना हाथी से करना। हमने सोचा कि अगर हमने कल सफ़ारी पुनः पहना तो तिल का ताड़ बनने में देर नहीं लगेगी। मुफ़्त में वो भद्र महिला बदनाम हो जायेगी, जिसका हमसे न लेना, न देना। हमने इरादा बदल दिया।
संयोग से अगले दिन सफ़ारी पहने हमारे एक मित्र को एक बाईक वाले ने पेट्रोलपंप कर्मी समझ कर एक लीटर पेट्रोल डालने का हुक्म दे दिया। उस समय हम अपने मित्र के साथ कार में पेट्रोल के लिए लाईन में लगे थे।
वो दिन है और आज का दिन। लगभग बीस साल हो चुके हैं। वार्डरोब में टंगा है सफ़ारी। सिर्फ़ एक बार धुला है। कुछ दिन पहले हमने इसे विदा करने का फैसला किया। लेकिन सहसा ज़हन में आया कि एक बार पहन कर पुराने दिनों की याद ताज़ा की जाए। सफ़ारी के आख़िरी सफ़र में कुछ पुराने दोस्तों से मिला जाए। हमने इसे पहनना चाहा। लेकिन फिट नहीं आया। बीस साल पहले वाला बदन अब नहीं रहा। थोड़ी चर्बी चढ़ गयी है। दरजी को दे दिया।
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1 comment:

  1. आपकी यादें सच में मीठी होती हैं

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