-वीर विनोद छाबड़ा
घर से निकलने से पहले
मैं सब चेक कर लेता हूं कि जेब में सब व्यवस्थित है।
चश्मा, रुमाल, मोबाइल, पर्स और कंघी।
एटीएम कार्ड नहीं रखता।
बहुत कम इस्तेमाल करता हूं। डर लगता है कि कोई हैकर पीछे न लगा हो।
बहरहाल, कभी-कभी ध्यान हटने
पर जाता है तो कुछ न कुछ भूल जाता हूं। सबसे ज्यादा गाज़ तो पर्स पर ही गिरी।
पत्नी साथ होती है
तो चल जाता है। उस वक़्त वो जो 'सुनाती' है, सुन लेता हूं। गलती
की है झेलना तो पड़ेगा ही न। चाहे हंस कर झेलो या गुस्सा होकर। हंस कर झेलना बेहतर है।
सेहत भी बनी रहती है। महीनों ये टॉपिक अड़ोस-पड़ोस में और घर आये मित्र/मेहमान के समक्ष
ऑटोमोड में रहता है।
सबसे ज्यादा फजीहत
पेट्रोल पंप पर होती है। पेट्रोल भरवा लिया। जेब में हाथ डाला तो पर्स गायब। घर पर
छूट गया। उस वक़्त एटीएम कार्ड की कमी बड़ी शिद्दत से महसूस होती है। ऐसे में किसी दोस्त
को फ़ोन करके पैसे मंगवा लेता हूं। जब कभी नंबर नहीं लगता तो गुस्सा आता है। एक बार
मित्र बोला आगरा में हूं। एक घंटे बाद गोलगप्पे खाता दिखा। खिसिया कर बोला - मेरा मतलब
आगरा मिष्ठान भंडार था। मैंने उसे अमित्र कर दिया। फिर से सुलह-सफाई के लिए पांच लीटर
पेट्रोल भरा कनस्तर गिफ्ट कर गया। जहां से रेगुलर पेट्रोल लेता हूं। वो पहचानता है।
ठीक है शाम तक दे दें। गाड़ी और मोबाइल नंबर नोट करवा दें।
एक बार ऑटो से ऑफिस
जाना हुआ। आधे रास्ते ख्याल आया कि पर्स जेब में नहीं है। जल्दी से ऑफिस के एक दोस्त
को फ़ोन किया। वो गेट पर आ गया। फज़ीहत होने से बच गयी।
कल तो गज़ब हो गया।
ऑटो में बैठा। हज़रतगंज जा रहा था। एलआईसी के दफ्तर। एक मित्र से मिलने और काम भी था
वहीं। उतरा तो पर्स नहीं। ऑटो वाले को सच बता दिया। एलआईसी ऑफिस करीब आधा किलोमीटर
दूर था। अगर इंतज़ार कर सको तो दोस्त को बुलाता हूं। लेकिन ऑटो चालक को ऑटो में बैठी
बाकी सवारी छोड़ने आगे जाना था। आमतौर पर ऑटो चालक बदतमीज़ माने जाते हैं। लेकिन इत्तेफ़ाक़
से मुसीबत के समय मुझे हमेशा अच्छे ऑटो चालक ही मिले।
ऑटो चालक मान गया
- कोई नही जी। कल दे देना। मुंशीपुलिया से चारबाग़ रुट है मेरा। दिनेश कहते हैं मुझे।
मैंने कहा - ठीक है।
शाम मुंशीपुलिया पर दे दूंगा। वहीं रहता हूँ। अपना विजिटिंग कार्ड दे दिया।
एलआईसी ऑफिस तक मार्च
करते हुए जा रहा था तो एक चुटकुला याद आया।
ज्योतिषी ने पति का
हाथ देख कर कहा - बच्चा तेरा कल्याण हो। आज तेरी पत्नी को अनायास धन प्राप्ति होगी।
पति - हां ज़रूर होगी।
अपना बटुआ जो घर भूल आया हूं।
मैं मुस्कुरा दिया।
अफ़सोस भी हुआ। मेरी पत्नी कभी मेरा पर्स नहीं छूती है और न मैं उसका पर्स।
मुझे अपने कार्यकाल
की वो दो सखियां भी याद आयीं जिनमें एक अक्सर पर्स घर भूल आती थी और रिक्शवाले को दूसरी
वाली पैसे देती थी। बाद में दिन भर दोनों का महिला कैंटीन में खूब झगड़ा होता था। और
बाकी महिलाओं का कर-मुक्त मनोरंजन।
बहरहाल एलआईसी में
मित्र से भेंट हो गयी। जान में जान आई। उसने काम भी करा दिया। वापसी के लिए २० रूपए
उधार लिए। स्टैंड खड़ा था कि उधर से पडोसी गुज़रे। लिफ्ट मिल गई। बच गए २० रूपए।
शाम मैंने दिनेश को
मुंशीपुलिया पर तलाश लिया।
वो हैरान होकर बोला
- साहब जल्दी क्या थी? मैंने कहा - जो मुसीबत में काम आये उसका ऋण तो तुरंत चुका देना
चाहिए।
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