-वीर विनोद छाबड़ा
डाकुओं की समस्या के इर्द-गिर्द घूमती साठ के दशक में महबूब
खान 'मदर इंडिया' दे चुके थे। इस सुपर हिट फ़िल्म के सेट पर आग
लगी थी। नायिका नर्गिस को सुनील दत्त ने जान की बाज़ी लगा कर बचाया। नर्गिस दिल दे बैठीं।
हालांकि फ़िल्म में दोनों मां-बेटे के किरदार में थे।
बहरहाल, सहसा ही इस डाकू समस्या से कई फ़िल्म वालों
को प्यार हो गया।
जन्म से कोई डाकू नहीं बनता। अन्याय, जमींदार, लाला और पुलिस
का ज़ुल्म, बेरोज़गारी, गरीबी, सरकार और समाज
की उपेक्षा उसे डाकू बनाती है। डाकू के सीने में भी दिल है। वो प्यार करता है। घर बसाना
चाहता है। बस उसे सरकार और समाज के सहारे और वादे की ज़रूरत है।
इस थीम पर साठ के दशक में आगे-पीछे तीन मशहूर फ़िल्में बनीं।
राज कपूर की 'जिस देश में गंगा बहती है', सुनील दत्त की
'मुझे जीने दो' और दिलीप कुमार की 'गंगा जमुना'.
यूं तो तीनों ही लैंड मार्क फ़िल्में थीं। लेकिन 'गंगा जमुना' ट्रेंड सैटर
थी। भोजपुरी डायलेक्ट, गांव की ज़िंदगी, कलाकारों का चरित्र-चित्रण, उनकी वेशभूषा
और बेहतरीन फिल्मांकन। फ़िल्म का रंगीन होना
भी एक अतिरिक्त आकर्षण था।
एक भाई कानून तोड़ने पर अमादा है और दूसरा कानून का रखवाला है।
यानि एक कानून के इस तरफ और दूसरा परली तरफ। कानून तोड़ने वाले डाकूओं का सफ़ाया और इंसाफ़
को उसके सही स्थान पर बैठाने के लिए पुलिस का दरोगा छोटा भाई कुछ भी कर सकता है। रास्ते
में भाई आयेगा तो वो उस पर भी गोली चलाने से पीछे नहीं हटेगा।
इस थीम पर बीसियों फ़िल्में बनीं हैं। लेकिन सबसे पॉवरफुल 'गंगा जमुना' ही है। इसी थीम
से प्रेरणा लेकर दीवार, त्रिशूल और अमर अकबर अंथोनी बनीं और तीनों में अमिताभ थे।
बर्लिन, चेकोस्लावेकिया, कार्लवरी आदि
कई इंटरनेशनल अवार्ड मिले। नेशनल फ़िल्म अवार्ड में सिल्वर मेडल और फिल्मफेयर में वैजयंतीमाला
को बेस्ट एक्ट्रेस, वजाहत मिर्ज़ा को संवाद और वी बाबासाहेब को फोटोग्राफ़ी के लिये
चुना गया।
निर्देशन नितिन बोस का था जो दिलीप को बरसों पहले 'मिलन' और 'दीदार' में डायरेक्ट
कर चुके थे। गॉसिप की दुनिया में ख़बर थी कि नितिन बोस किनारे बैठे रहते थे और पूरी
कमांड दिलीप कुमार के हाथ में थी। लेकिन यह कोरी बक़वास थी। दिलीप को बदनाम करने और
फ़िल्मी रिसालों का सर्कुलेशन बढ़ाने की साज़िश थी। इसका खंडन सेट पर मौजूद कई लोगों ने
और खुद दिलीप कुमार और नितिन बोस ने किया।
नितिन बोस बंगाली फिल्मों के बहुत काबिल डायरेक्टर थे और बहुत
अच्छे फोटोग्राफ़र भी। उन्होंने तीस और चालीस के दशक में बीस फिल्मों का छायांकन किया
और ग्यारह फ़िल्में भी लिखीं।
यही फ़िल्म थी जिसमें दिलीप कुमार और वैजयंतीमाला का रोमांच उच्चतम शिखर पर था और इसके बाद दरारें पड़नी शुरू हो गयीं थी। इसी फ़िल्म की बेमिसाल कामयाबी से प्रभावित होकर भाइयों के नाम गंगा-जमुना रखे जाने लगे।
इस फिल्म में शकील बदायुँनी के लिखे एक गाने को हेमंत मुख़र्जी
ने गाया था। संगीतकार नौशाद अली के साथ हेमंत का होना सुखद आश्चर्य था। मुझे याद नहीं
पड़ता कि इससे पहले और बाद में हेमंत ने नौशाद के लिए गाया हो।
हेमंत खुद भी बहुत अच्छे गायक होने साथ-साथ बेहतरीन संगीतकार
थे। गुरुदत्त की क्लासिक 'साहेब बीवी और गुलाम' का म्यूजिक हेमंत
कुमार का ही था।
उनकी आवाज़ को लोग सिल्की वॉयस बोलते थे। इस गाने में अरुणा ईरानी
बाल कलाकार के रूप में दिखी थी।
मैं बचपन से बड़ा हुआ। स्कूल-कॉलेज में पढ़ा। इस दौरान हर महत्वपूर्ण
फंक्शन में मैंने यह गाना अनगिनित बार सुना। अब भी सुनाई देता है। और शायद आगे भी सुनाई
देता रहेगा। बड़ी ताक़त है इसमें। लीजिये आप भी पढ़ें और गुनगुनायें।
इन्साफ की डगर पे बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं
हो कल के
दुनिया के रंज सहना, और कुछ न मुंह
से कहना
सच्चाइयों के बल पे, आगे को बढ़ते
जाना
अपने हो या पराये, सबके लिए हो
न्याय
देखो कदम तुम्हारा, हरगीज़ न डगमगाए
रस्ते बड़े कठिन हैं, चलना संभल-संभल
के
इंसानियत के सर पे इज़्ज़त का ताज रखना
तन-मन की भेंट देकर, भारत की लाज
रखना
जीवन नया मिलेगा, अंतिम चिता में जल के
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