Tuesday, September 15, 2015

लेखन से पहला पेमेंट और अग्निहोत्री जी।

-वीर विनोद छाबड़ा 
मैंने लेखन लखनऊ के लोकप्रिय दैनिक स्वतंत्र भारत से शुरू किया था। संपादक के नाम पत्र से। यह १९६७-६८ की बात है।
सिनेमा देखने का शौक हद दर्जे का रहा। पहला लेख सिनेमा से ही संबंधित था।
हुआ यों कि जब भी फ़िल्म देख कर आता तो उसका विवरण एक पुरानी डॉयरी में दर्ज कर लेता। कौन सा शो, किस क्लास में और किसके साथ। और साथ में यह भी कि फिल्म कैसी रही।
एक दिन चोरी पकड़ी गयी। मां ने डॉयरी पढ़ ली। स्कूल जाकर शिकायत की। बच्चा बिगड़ रहा है। आप लोग ध्यान क्यों नहीं देते? सब फ़िल्में देखता है स्कूल से भाग कर। प्रिसिपल साहब ने सरेआम दो झापड़ रसीद दिए।
पिताजी दौरे से लौटे। मामला उनकी अदालत में पेश हुआ। उन्होंने तफ़सील से सब सुना और डॉयरी पढ़ते-पढ़ते कहने लगे - इतना अच्छा लिखते हो। अख़बार में छपने को क्यों नहीं भेजते?
आईडिया हिट कर गया। १९६७ की फ़िल्मों पर एक नज़र। स्वतंत्र भारत में छपा। इसके बाद कई और लेख छपे। दो तीन कहानियां भी। बच्चों के स्तंभ में। लेकिन पारिश्रमिक नहीं मिला। फिल्म देखने के लिए पैसों की अक्सर दरकार रहती थी।
एक दिन हिम्मत करके स्वतंत्र भारत के ऑफिस जाकर दरयाफ़्त की। मुझे श्री नन्द राम चतुर्वेदी जी के पास भेजा गया। वो वहां थे तो सर्कुलेशन मैनेजर, लेकिन मैगज़ीन देख रहे थे। खास तौर पर सिनेमा का पृष्ठ।
उन्होंने मुझे सर से पांव तक देखा। हैरान होते हुए बोले - अरे, तुम तो बच्चे हो। बिलकुल मेरे बेटे की तरह। 
मैं भी हाज़िर जवाब -  तो फिर बेटे को जेब खर्च दीजिये।
वो मुस्कुराये - अगले महीने से शुरू करेंगे। अग्निहोत्री जी से मिल लेना।
श्री बाल कृष्ण अग्निहोत्री जी वहां प्रूफ़ रीडिंग इंचार्ज थे। अगले महीने किसी तरह उन्हें तलाशते हुए नीचे छापेखाने में पहुंचा। दुबले-पतले, सफ़ेद और साफ़-सुथरा धोती-कुरता धारी। मुझे यकीन नहीं हुआ। मैंने सोचा था चतुर्वेदी जी तरह कोई सूटेड-बूटेड होंगे। किसी केबिन में तशरीफ़ रखे हुए। परंतु वो तो टहल रहे थे।
मैंने उन्हें अपना परिचय दिया। उन्होंने सरसरी निगाह से मुझे सर से पांव तक घूरा। असली-नकली की पहचान और तहक़ीक़ात का यही तरीका था उनका।
फिर जेब से उन्होंने एक मुड़ा हुआ कागज़ निकाला। उसे खोला। कई तहें थीं उसकी। किसी रजिस्टर से अलग किया हुआ। यह एक सूची थी। मेरा नाम तलाश किया। रसीदी टिकट लगाया। हस्ताक्षर कराये और थमा दिए सात रुपए। उन दिनों पांच रूपए के किसी भी भुगतान पर बीस पैसे का रसीदी लगता था।
मुझे धक्का लगा  - बस इतने ही!
वो मुस्कुराये - यही बड़ी उपलब्धि है कि इतने जल्दी मिलने शुरू हो गये। कइयों को तो महीनों झेलना पड़ता है।
ज़िंदगी में लेखन से पहली कमाई। कम ही सही। है तो गाड़े खून पसीने की। मैंने अग्निहोत्री जी के चरण स्पर्श किये। उन्होंने आशीर्वाद दिया।
मैंने इस कमाई को मां के क़दमों पर रख दिया। यह हमारे परिवार का रिवाज़ था और आज भी है कि पहली कमाई मां के चरणों में ही रखी जाती है।
यों मां मेरे लेखन से कतई खुश नहीं थी। जैसा बाप, वैसा बेटा। निखट्टू। लेकिन कमाई को चरणों में रखा देख भावुक हो गयी। आशीर्वाद दिया। गले लगाया।
स्वतंत्र भारत में बहुत लंबे समय तक लिखा और लंबे समय तक अग्निहोत्री जी पारिश्रमिक बनाने और उसका भुगतान करने के इंचार्ज रहे। वो चलते-फिरते कहीं भी मिल जाते थे। लेखकगणों के कैश ऑफिस। उनसे कुछ कहना नहीं पड़ता था। देखते ही जेब से सूची निकालते। मुझे लेख का भुगतान करते और मैं रसीदी टिकट का भुगतान उन्हें करता। चलते समय उनके चरण स्पर्श करना नहीं भूलता था। इससे वो बड़े प्रसन्न होते थे। बरसों चला यह सिस्टम।
एक बार महीने में तीन लेख छपे। सात रूपए के हिसाब से २१ रूपए बनता था। परंतु मिले सिर्फ़ बीस। एक रूपए का नुकसान। अग्निहोत्री जी ने हाथ खड़े कर दिए। प्रशासन की नीति है। साठ के दशक के अंत में एक रुपये का भी महत्व था।
दूसरे महीने दो छपे। सोचा राउंड फिगर में शायद पंद्रह मिलें। परंतु चौदह ही मिले।

अग्निहोत्री जी अक्सर मुझे सलाह भी देते थे कि ऐसे नहीं ऐसे लिखा करो। लाल पेन से नहीं, नीले या काले पेन से लिखो। प्रूफ़ रीडिंग में दिक्कत होती है। 
बाद में पारिश्रमिक की दर दस रूपए हो गयी, फिर बीस.पच्चीसतीस.चालीसजबकि नवजीवन में पांच रूपया ज्यादा। अमृत प्रभात पैंसठ और बरेली का अमर उजाला सौ रुपए देता था।
लेकिन स्वतंत्र भारत में छपना अपने में एक उपलब्धि हुआ करती थी। शहर में सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला अख़बार। जिस दिन मेरा छपता आठ-दस तो मिलते ही कहने वाले - तुम्हारा लेख पढ़ा था।
और दो-एक यह पूछना भी नहीं भूलते थे - तुम्हीं ने लिखा था न?
बरसों बाद मैं रिटायर हुआ। मेरी आख़िरी कुल पगार एक लाख से ऊपर थी। उस वक़्त मुझे पहली कमाई याद आई - सात रूपए। याद आई वो ख़ुशी। ख़ुशी के वो सात रूपए एक लाख प्लस पर भारी थे। 
आज भी कोई दुबला-पतला सफ़ेद धोती-कुरता धारी देखता हूं तो अग्निहोत्री जी और साथ में पहली कमाई के सात रूपए याद आते हैं।
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Lucknow - 226016 

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