Friday, September 4, 2015

हम तो तेरे आशिक़ हैं!


-वीर विनोद छाबड़ा
ये वाक्या यूनिवर्सिटी की यादों से जुड़ा है। दौर सत्तर के दशक का प्रारंभ।
हमारे एक मित्र थे माईकल, दिलफेंक किस्म के। बिलकुल बिंदास। किसी भी स्टेशन पर एक दिन से ज्यादा नहीं रुकते थे।
तमाम सहपाठनियां भी उनकी इस बाल सुलभ हरकत से वाकिफ़ थीं। उन्हें भी बुरा कतई नहीं लगता था। उल्टे वे उनसे चुहल करतीं।
एक बार उनका दिल एक ऐसी मोहतरमा पर आ गया कि हम मित्रगण डर गए। हमने उन पर फ़िदा होने वाले सरेआम पिटते देखे थे। उनकी और देखने का मतलब था कि किसी को बर्र के छत्ते में ऊंगली डालना। डायरेक्ट करेंट वाले बिजली के नंगे तार को छूना।
मोहतरमा के जलवे और दशहत की धमक पूरी यूनिवर्सिटी में थी। दो राय नहीं कि बलां की खूबसूरत जो थीं। किसी का भी दिल आना लाज़िमी था। मगर
वो चौबीस मुश्टंडे किस्म के पहरेदारों की सख्त निगरानी में रहतीं। ऐसे में किसी की क्या मज़ाल कि नज़र मिला कर बात भी कर सके। कई लड़के बता चुके थे कि सपने में उन्हें ग़लती से हेलो कह गए और बदले में पिट गये।
इन तथ्यों के मद्देनज़र हम मित्रों ने माईकल को बहुत समझाया। वो खुद भी सारे हालात से वाक़िफ था। मगर फिर भी जान देने पर उतारू था - दिल दिया है जां  भी देंगे अरे भई आशिक़ का जनाज़ा है, ज़रा धूम से निकले। 
इज़हारे मुहब्बत के लिए एक मख़्सूस दिन भी उन हज़रत ने तय कर लिया। एक शेरवानी का इंतज़ाम किया। तमाम नामी फ़िल्मी और ग़ैर-फ़िल्मी शायरों के क़लाम रटे। दायें हाथ में गुलाब का फूल लेकर इज़हारे मुहब्बत की कई बार रिहर्सल हुई।
एकहरा जिस्म, छाती अंदर धंसी हुई, काली शेरवानी, हाथ में गुलाब का फूल और होटों पर ये फ़िल्मी नग़मे - हम तो तेरे आशिक़ हैं सदियों पुराने फूल तुम्हें भेजा है ख़त में.पांव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी
उनकी संभावित बेतरह पिटाई के नज़ारे की कल्पना करके हम सब मित्र दहल जाते। हमें तो यह भी डर था कि चक्की में घुन की तरह हम भी न पिस जाएं।
जब तमाम कोशिशें नाकाम साबित हुईं तो हमने तय किया कि हरदिल अज़ीज़ सहपाठनी 'आपा' की मदद ली जाये।
हमने उनको सारा किस्सा बयां किया। वो भी सकते में आ गयीं। खामख्वाह ही एक नादान लड़का पिटेगा। इस बेइज़्ज़ती से उसका दिल टूटेगा। गहरे सदमे में भी जा सकता है।
वो हमारी मदद के लिए तैयार हो गयीं। एक फूलप्रूफ स्क्रिप्ट तैयार की गयी।
स्क्रिप्ट के मुताबिक़ अगला सीन यूं हुआ।
शेरवानी में दुबले-पतले माईकल दायें हाथ में गुलाब का फूल और इत्र में तरबतर क्लास में दाखिल हुए। सारे लड़के-लड़कियां माईकल को इस लिबास
और अंदाज़ में पहली मरतबे देख रहे थे। हैरान और परेशान थे। कुछ लड़कियां तो डर ही गयीं। उन्हें लगा कि माईकल को कोई दौरा पड़ गया है।
मगर हम बेफ़िक्र थे। सब कुछ स्क्रिप्ट के मुताबिक चल रहा था। बस मोहतरमा के आने की देर थी।
एक घंटा गुज़रा। दो घंटे। तीन घंटे और फिर सारा दिन गुज़र गया। मगर मोहतरमा नहीं आईं। थक गयीं अखियां पंख निहार। आशिक़ का दिल टूट गया। हम ने हौंसला रखने का मशविरा दिया। आज नहीं तो कल।

अगली बार पंचांग के हिसाब से दिन तय किया गया ताकि इस बार कोई गड़बड़ी न होने पाये। दो दिन बाद का मुहूर्त निकला। माईकल भाई फिर पूरी तैयारी से मैदान में उतरे।
मगर उस दिन फिर किस्मत धोखा दे गयी। मोहतरमा नहीं आयीं। माईकल फिर मायूस। हमने फिर हौसला रखने का मशविरा दिया।
दोबारा से पंचांग देखा गया। बाकायदा पंचांग एक्सपर्ट से राय ली। लेकिन फिर वही हुआ। बड़ी तैयारी की और मोहतरमा नहीं आई।
ऐसा जब पांचवीं बार हुआ तो माईकल का मूड पूरी तरह से उखड गया - यार बहुत हो गया। इतना तो अगर गॉड को याद किये होते तो इंतेक़ाल के बाद ज़न्नत का इंतेज़ाम तो हो ही जाता।
अगले ही दिन से माईकल ने आदतन स्टेशन बदल लिया। और इधर मोहतरमा ने बदस्तूर आना शुरू कर दिया। माईकल ने उसकी ओर दोबारा मुड़ कर भी नहीं देखा कभी। उनको अगला स्टेशन मिल चुका था।
अब आपको ये बताएं की ऐसा हुआ कैसे?
दरअसल उन आपा ने उस मोहतरमा से सारा किस्सा बयां करके गुजारिश की कि फलां-फलां दिन यूनिवर्सिटी न आयें। और वो मोहतरमा मान गयी थीं।
हमें मालूम था कि मित्र की आशिकी की सनक चार-पांच दिन से ज्यादा नहीं बढ़ती। आशिक़ी का भूत खुद-ब-खुद उतर जायेगा।   
हम सबने उन मोहतरमा को तहे दिल से शुक्रिया भिजवाया कि उन्होंने एक नादां आशिक़ को पिटने से बचा लिया।
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04-09-2015 mob 7505663626
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Lucknow - 226016


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