-वीर विनोद छाबड़ा
दो साल पहले। शायद आज ही का दिन। त्रिवेदी नहीं सिर्फ़ कमल कुमार लिखता था वो। मेरा
हमउम्र। मेरे घर के ठीक पीछे उसका घर और उसके घर के ठीक पीछे मेरा घर। पिछवाड़े की दीवारें
जुडी हुईं।
१९८२ में जब मैं इंदिरा नगर आया तो एक नज़र में ही तय हो गया था कि वो सिर्फ़ पड़ोसी
नहीं रहेगा, गहरा दोस्त भी बनेगा और हमराज़ भी। ज़िंदगी के ढेर फ़साने, सुख-दुःख शेयर किये।
बावजूद अलग-अलग राजनैतिक विचारधारा के वो ऐसा दोस्त रहा जिसके साथ दोस्ती निभाई जा
सकती
थी। मैं कांग्रेस समर्थक और वो भाजपा समर्थक अटलजी का घनघोर भक्त।
हम उसे प्यार से पंडितजी कहते। हम आमतौर पर सामाजिक और पारिवारिक मुद्दों पर ही
बात करते थे। लेकिन हम दोनों में जिसकी भी पार्टी जीतती, लपक कर बधाई देने और
मिठाई खाने में देर नहीं लगाते थे। क्रिकेट का शौक़ीन होना एक और कॉमन इंटरेस्ट। ऑस्ट्रेलिया
में वन डे सीरीज़ चलती थी। वो सुबह पांच बजे जगाने आ जाता था। साथ-साथ बैठ कर मैच देखने
का मज़ा ही दूसरा होता है।
दीवाली के दिन होते तो 'शुरू' हो जाते। गंगा स्नान तक कार्यक्रम चलता। और होली पर तो तरंग तरंग होती। देसी-विलायती
सब चलती। याद ही नहीं रहता था कि कहां-कहां घूंट मार आये। महीने में एक दफ़े संगीत की
महफ़िल 'खान-पीन' के साथ हो जाती। उसका माउथ ऑर्गन पर 'मेरा जूता है जापानी…' सुनना बहुत अच्छा लगता।
कभी कभी डर लगता था कोई नज़र न लगे। और सचमुच एक ज़लज़ला आया। सब खत्म हो गया। पंडितजी
को लेफ्ट साइड पर पैरालिसिस हुआ। मगर कमाल का जीवट था उसका। नए सिरे से ज़िंदगी की शुरुआत
की। आधी ज़िंदगी को भी पूरी तरह एन्जॉय किया।
३१ साल की दोस्ती में शायद मैं ही था जिसने सबसे ज्यादा उसे विजिट किया। आख़िरी
दस साल तो अपवाद स्वरुप ही कोई शाम रही हो जब मैं उससे मिलने नहीं गया। वो अक्सर बालकनी
में बैठा मेरा इंतज़ार करता होता। मेरे आने की उम्मीद ख़त्म होने पर ही वो चाय पीता।
अच्छे खाने का शौक़ीन। अकेले-अकेले खाने में में मज़ा नहीं। मुझे साथ देना पड़ता। घंटा
-डेढ़ घंटा गप्प-शप्प।
जिस दिन मैं नहीं जाता वो बेचैन हो जाता। क्या हुआ? ठीक तो हो न?
उन दिनों मैं कमरा ठीक करा रहा था। रोज़ शाम प्रोग्रेस पूछता। एक दिन मैंने कहा
- तैयार हो गया है। कल सुबह आता हूं। कार से ले चलूंगा दिखाने।
लेकिन किसी वज़ह से नहीं जा पाया। उस शाम फोन से पूछा भी नहीं कि मैं कहां रह गए।
रात सवा दस बजे भाभी का फ़ोन आया - जल्दी आइये। तबियत बहुत ख़राब है।
फ़ौरन कार निकाली। अस्पताल ले गए। डॉक्टर ने वेंटीलेटर पर लिटा दिया। दूसरे दिन
जवाब दे दिया। दिल नहीं माना। परिवार वाले दूसरे अस्पताल ले गए। वहां भी वेंटीलेटर
पर रखा। अगले दिन वहां भी डॉक्टर ने कहा - नो.…
लगा जिस्म का एक हिस्सा कट गया। शून्य ही शून्य। कई दिन तक कुछ समझ नहीं आया। भगवान
से मनाता शाम न हो। लेकिन समय का चक्र नहीं बदलता।
कई दिन तक वॉक पर नहीं गया। उस गली से नहीं गुज़रा। कहीं दूर निकल जाता। लेकिन कम्बख्त
याद दिल से नहीं निकलती। जाने-अनजाने उधर से गुज़ारना हो ही जाता है। बॉलकनी की और निगाह
बेसाख्ता उठ ही जाती है। लेकिन पंडितजी वहां नहीं हैं। सूनी है बॉलकनी। खाली पड़ी हैं
दो कुर्सियां। लेकिन उसके होने का अहसास ज़रूर होता है।
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१९-०६-२०१५
Above posted
on face book dated 19 June 2015
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