-वीर विनोद छाबड़ा
दर्द और वो भी दांत का दर्द। इतना ख़राब कि भगवान दुश्मन को भी
न दे। यही मुंह से निकलता है, हर दांत दर्दू के मुंह से।
न सोने दे और न चैन से बैठने दे। खाना-पीना भी मुश्किल। सोचना
तो बहुत दूर की बात। पान और मसाला चबाने वालों के लिए तो बस जीना
हराम।
अब यह कोई बनिये की ऑन लाईन दुकान भी नहीं कि चौबीस घंटे खुली
रहे और हम पूछें इस दर्द की दवा क्या है? जल्दी से भेज दो।
यों सलाह देने वाले भी एक नहीं। हर दूसरा आदमी महान जानकार।
सलाह से पहले अपने पर गुज़री दांत-ए-दर्द के लंबी-चौड़ी दास्तां सुना डाली। जिनकी अपनी
आपबीती नहीं वो दूसरों की आपबीती ले बैठा। सबसे बोर आदमी। आख़िर में जो दवा बताई तो
ज्यों ज्यों दवा की दर्द बढ़ता ही गया।
बिना डेंटिस्ट के काम नहीं चलता। वहां लगी लाईन देख दर्द और
भी बढ़ जाता है। जान हथेली पर आ जाती है,
जब डेंटिस्ट कहता है तीन दिन बाद आना। अभी फ़ुरसत नहीं।
अब आते हैं मुद्दे पर। हम उन दिनों बीए फ़ाईनल का एग्ज़ाम दे रहे
थे। पिछले साल अच्छे नंबर नहीं थे। लिहाज़ा बहुत प्रेशर था। सेकंड डिवीज़न लानी है। नहीं
तो बीए पास थर्ड डिवीज़न कहलायेंगे। ख़ानदान में पहले नालायक़। नाक नहीं कटनी चाहिए। मगर
अचानक दांत में भयंकर पीड़ा उठी। अब नाक बचायें या दांत। यक्ष प्रश्न खड़ा हो गया।
डेंटिस्ट छुट्टी पर। तीन दिन बाद आयेगा। फिजीशियन ने कहा निकालना
पड़ेगा। तब तक यह एंटीबॉयटिक और पेनकिलर खा।
न जाने कैसी दवा थी कि नींद न टूटे। ऊपर से एग्ज़ाम। ख़ानदान की
नाक। नाक में दम हो गया। रोना भी आ गया।
जैसे-तैसे दर्द निवारक खा-खा कर एग्ज़ाम दिया। और लौट कर घर आने की बजाये सीधा डेंटिस्ट
के पास। लखनऊ का नाले के पास कृपा देवी ट्रस्ट हॉस्पिटल। डेंटिस्ट भी एक नमूना। मोटा-ताजा
और गहरा सांवला रंग। हाथ में प्लास। पहले तो हम देख कर डर ही गए। यमराज के पास तो नहीं
आ गए। इंजेक्शन दिया। बोले, बड़ा सा मुंह खोल कर मन ही मन बोलो बजरंग बली की जय।
हमने ऐसा ही किया और पता ही नहीं चला कब डेंटिस्ट ने दांत उखाड़
कर हमारे हाथ में रख दिया। खूब मोटा और लंबा सा। सड़ा हुआ। जितना ऊपर नहीं उससे कहीं
बड़ा नीचे। इसे कहते हैं अक्कल दाढ़।
अरे बाबा, अक्कल दाढ़ गयी तो हम किस काम के रहे? कल फिर एग्ज़ाम है।
समझाया गया कि दिमाग वाली अक़ल से कोई मतलब नहीं। तीन दिन तक
खाना नरम-नरम। मां घर में निकाले देसी घी में मनपंसद बेसन का हलवा सुबह-शाम खिलाती
रही।
सिर्फ़ पच्चीस पैसे का ख़र्च आया था। वो भी परचा बनवाई का। ट्रस्ट
का हॉस्पिटल जो था। बहुत सस्ते मद्दे में निपट गए।
तब से आज तक दांत के दर्द को लेकर दर्जनों बार एक से बढ़ कर एक
डेंटिस्ट के पास जाना पड़ा। हर बार नया तजुर्बा। कभी उखड़वाने तो कभी ठुकवाने। अब तो
अच्छी ख़ासी चिपका भी देते हैं, हज़ारों रूपए की और दांत भी चिपक जाता है। कई बार आरसीटी की कई सिटिंग वाली लंबी
प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा।
हमें याद है एक आमने मे सिर्फ़ चांदी भरी जाती थी। अब तो ढक्कन
भी लगा देते हैं। मेटल का भी है और फाईबर का भी। हरेक की कीमत हज़ारों में। सोच लीजिये, दांत है तो खाना बढ़िया
चबाया जाएगा। खाना बढ़िया चबेगा तो हज़म जल्दी होगा। हज़म जल्दी होने का मतलब सेहत ठीक
रहगी और सेहत ठीक होने के मतलब लंबी उमर। चेहरे की बनावट भी ठीक रहेगी।मुंह पिचका पिचका
नहीं लगेगा।
आदमी को सोचने का मौका ही नहीं। बस, आप जो ठीक समझें डॉक्टर
साहब। ज़िंदगी चलती रहनी चाहिये। पैसा तो आनी-जानी चीज़ है। हमें याद है हमारे धनवान
बड़े-बुज़ुर्ग सोने का दांत लगवाया करते थे। कोई चांदी के दिलवाला, कोई सोने का दिलवाला।
हमें याद है हमारे मोहल्ले में एक साहब मरे थे तो उनके बेटों ने प्लास से सोना चढ़ा
दांत खींचा था।
पहले शहर में डेंटिस्ट ढूंढने पड़ते थे। एक्का दुक्का होते थे।
फुटपाथिये डेंटिस्ट तो हर वक़्त मिलते थे। नहीं तो मेडिकल कॉलेज जाईये। जान-पहचान है
तो सोने में सुहागा। वरना दर्द किसी दांत में होता था और उखाड़ कोई और लिया जाता। सिखंतु
डेंटिस्ट का कभी भरोसेमंद नहीं रहे।
इस पोस्ट का मक़सद यह है बताने का कि पिछले कई दिनों से दांत-ए-दर्द
से गुज़र रहा हूं। पेन किलर और एंटीबॉयटिक बेअसर रहीं। आरसीटी हुई और कैप भी लग गयी।
ठंडा-गर्म नहीं लग रहा। रोटी क़ायदे से चबाई जा रही है। ज़िंदगी स्वर्ग लग रही है। और
दर्द, जो ताउम्र ठहर जाने वाला दिल-ए-दरद बन चला था, अब गायब है।
और जेब भी कम हल्की हुई है। मिशनरी अस्पताल है। नो प्रॉफ़िट नो
लॉस जैसा सिस्टम है। प्राइवेट में जाते तो जेब ज़रूर कट जाती।
---30-09-2015 Mob 7505663626
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