-वीर विनोद छाबड़ा
चालीस साल और कुछ दिन की हो गयी 'शोले'। कल फिर देखी। शायद चालीसवीं बार। आज भी तरो-ताज़ा है। एक-एक शॉट और अंदाज़-ए-बयां
बासी नहीं है।
क्यों है ऐसा? कुछ भी तो बेवज़ह नहीं। स्पॉट बॉय से लेकर टॉप स्टार्स तक का टोटल इन्वॉल्वमेंट।
बड़े से छोटे तक एक-दूसरे के लिए और फ़िल्म के लिये कुछ भी करने को तैयार दिखता है। वरना
आमतौर पर शॉट ओके। पैक-अप। सब अपने अपने रस्ते। तू कौन और मैं कौन?
तीन साल और तीन करोड़। १९७२ से १९७५ के दौरान की सबसे महंगी फ़िल्म। जन्म लेने के
दिन से चर्चा में थी। फिर हम ठहरे पिक्चरबाज़। फ़िल्म को परदे पर देखते हुए परदे के पीछे
की पढ़ी कहानी भी मिक्स-अप करते चलते।
दो लाईन की कहानी। जेलर ठाकुर बलदेव सिंह के हाथ डाकू गब्बर सिंह ने काट दिए। बदला
लेने के लिए उसने जय और वीरू नामक दो सज़ायाफ्ता गुंडों का सहारा लिया। सलीम-जावेद पहले
'खोया-पाया' फॉर्मूले में सिद्ध मनमोहन देसाई के पास गए। चाचा-भतीजा में व्यस्तता के बहाने
मना कर दिया। अच्छा हुआ। वरना बेड़ा ग़र्क़ कर देते।
इतने से अफ़साने को सलीम-जावेद ने किस्सागोई के अंदाज़ में फ़साना बना कर रमेश सिप्पी
को सुनाया। वो उछल पड़े। किरदार जुड़ने लगे। बसंती तांगेवाली…चल धन्नो आज तेरी बसंती
की इज़्ज़त का सवाल है। हिटलरनुमा जेलर असरानी…हम अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर हैं। सांभा…पूरे पचास हज़ार। सिर्फ़
इतना बोलने के लिए उन्हें पचीस मरतबे बंबई से बंगलौर तक सफ़र का सफ़र तय करना पड़ा।
सिर्फ़ नज़रों से बात करती ठाकुर की विधवा बहु राधा सिर्फ़ संध्या होते ही लालटेन
जलाती नज़र आती है। कालिया, सूरमा भोपाली, मौसी, तमाम किरदार जुड़ते गए। इन्हें गढ़ने को लेकर कई कहानियां गढ़ी गयीं, किस्सागोई हुई। सीन
शूट हुए। और फिर इन सबको सिलसिले वार पिरो दिया गया।
ठाकुर बलदेव सिंह में प्राण साहब बिलकुल फिट बैठ रहे थे। उनके लिए बायें का रोल।
लेकिन जाने क्या हुआ कि सीता-गीता में काम कर चुके संजीव कुमार जंच गए। यह आदमी हर
किरदार चैलेंज की तरह स्वीकारता है। जान डाल देगा।
धरम गरम हो गए। ठाकुर का किरदार हम करेंगे। शुभचिंतक ने समझाया। क्या कर रहे हो? हेमा दूर हो जायेगी।
संजीव तब बनेगे वीरू। हेमा पर फ़िदा हैं संजीव। उन्हें करीब होने का मौका मिलेगा। इस
आशंका के मद्देनज़र धरम नरम हुए।
जय का क़िरदार शत्रुघ्न सिन्हा के लिए रिज़र्व था। लेकिन अमिताभ बच्चन ने एड़ी-चोटी
का ज़ोर लगा दिया। राधा में उनकी जया थी। वो भला कैसे दूर रहते। शूटिंग शुरू होने से
पहले दोनों की शादी भी हो गयी। बेटी श्वेता गर्भ में थी और शूटिंग ख़त्म हुई तो बेटा
अभिषेक गर्भ में था।
फ़िरोज़ खान की 'धर्मात्मा' में व्यस्त न होते तो गब्बर के किरदार में डैनी दिखते। अमजद खान को ले आये सलीम-जावेद।
पहली नज़र में रमेश सिप्पी को नहीं भाये। लेकिन सलीम-जावेद को इत्मीनान था। बाकी तो
हिस्ट्री है। सिर्फ़ नौ सीन में दिखे गब्बर का ख़ौफ़ पूरी फ़िल्म पर छाया रहा.…कितने आदमी थे.…तेरा क्या होगा रे
कालिया…ये हाथ हमको दे दो ठाकुर…अरे सांबा कितना ईनाम रखे है सरकार हम पर.…जो डर गया समझो मर
गया.…यहां से पचास कोस दूर गांव में बच्चा रोता है, तो मां कहती है, बेटे सो जा, नहीं तो गब्बर सिंह
आ जायेगा…ये रामगढ वाले अपनी बेड़ियों को कौन चक्की का पीसा आटा खिलाते हैं रे.…क्या सोच कर आये थे
सरदार बहुत खुश होगा, शाबाशी देगा…
Amjad Khan |
भारतीय सिनेमा के इतिहास में पहली दफ़े विलेन को इतना क्रूर बनाया गया कि लोग थूकें
उस पर। लेकिन इसके उलट उसकी इमेज समाज में महिमा-मंडित हो गयी। लोग बेतरह प्यार करने
लगे। उसके संवादों की मिमक्री होने लगी। इसे कैश करने के लिए बाज़ार में संवादों के
कैसेट उतारे गये।
'शोले' पूरी होते ही इमर्जेंसी लागू हो गयी। खतरा मंडराने लगा। फ़िल्म परदे का मुंह देख
पाएगी? इसमें तो हिंसा ही हिंसा है। निर्माता ने ज़मीन-आसमान एक कर डाला। कई सीन कटे, हिंसा का प्रभाव कम
करने को। कुछ रीशूट हुए। गब्बर को ठाकुर के पैरों तले रौंदे जाने से ऐन पहले पुलिस
लाई गयी।
Hema Malini |
फ़िल्म रिलीज़ हुई। अच्छा रिस्पांस नहीं मिला। खिड़की खुली है। आराम से टिकट ले लो।
क्रिटिक उबल पड़े - 'मेरा गांव मेरा देश' के पैरों से निकली सेकंड रेट नक़ल है.…दूसरी 'खोटे सिक्के…तमाम अंग्रेज़ी फ़िल्मों का कचरा…समाज को हिंसा बर्दाश्त नही…
ऊपर से माऊथ पब्लिसिटी। हफ़्ता निकला नहीं कि ब्लैक में दस-बीस गुना ज्यादा रेट
पर टिकट बिकने लगे। सर्वकालीन हिट फिल्म। क्रिटिक के सुर बदल गए। शानदार। क्लासिक।
कालजई। तीन करोड़ लगाये, तीन सौ.…नहीं पांच सौ दे गयी।
लेकिन जब फिल्मफेयर ने ईनाम बांटे तो डंडी मार दी। सिर्फ एडिटिंग के लिए ईनाम दिया।
तिस पर ट्रेजेडी देखिये। तीस बरस बाद २००५ में इसी फिल्मफेयर के अवार्ड चयन मंडल ने
'शोले' को पिछले पचास बरस की नंबर वन फिल्म घोषित किया। शोले के साथ तो देर सवेर इंसाफ
हो गया, लेकिन मुगल-ए-आज़म के साथ नहीं हुआ। इस शाहकार को सिर्फ़ संवादों के ईनाम तक से संतोष
करना पड़ा।
शाहकार से प्रेरणा लेकर उससे बड़े शाहकार बनाये जाते हैं। नक़ल करने वाले औंधे मुंह
गिरते हैं। राम गोपाल का यही हश्र हुआ। अमिताभ बाबू की मौजूदगी भी नहीं बचा पायी। गब्बर
सिंह बन कर अपनी मट्टी पलीत करा बैठे।
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