Tuesday, September 22, 2015

मुलुक से आया मेरा दोस्त!

-वीर विनोद छाबड़ा
मैंने आज एक मित्र की पोस्ट देखी। मुद्दा अप्रवासी को दूसरे शहर में अपने वतन का कोई मिलता है तो वो कितना आनंदित और झंकृत होता है। उसका रोम-रोम उसे गले लगाने को मचल उठता है। 
मुझे याद आता है पैंतालीस साल पहले का ज़माना। बंबई गया था घूमने। तब बंबई, बंबई था मुंबई नहीं। वहां मेरे मित्र थे, नील रतन (अब दिवंगत)। अपने लखनऊ के ही। उसी के घर ठहरा था। मूलजी बिल्डिंग थी, दादर का प्रभा देवी इलाका।
नीचे एक पान की दुकान। पंजाबी होते हुए भी मुझमें पंजाबियत नहीं और पंजाबी लहज़ा भी नहीं। भाषा से शुद्ध यूपीयन। कुछ तरबीयत का असर और कुछ गंगी-जमुनी तहज़ीब का।
नील रतन ने पान वाले से परिचय कराया। मुलुक से आया मेरा दोस्त। सलाम करो।
पानवाला भी सुल्तानपुर से था। मस्त हो गया सुन कर।
मैंने सिगरेट पी।
काहे का पैसा? अरे भाई, मुलुक से हो। सुल्तानपुर से लखनऊ कोई दूर तो है नहीं। यही ढाई-तीन घंटे का रास्ता।
मैं पान नहीं खाता था, ज़बरदस्ती खिलाया। मीठा पान। मज़ा आ गया। भई, जब तक हूं यहां तुम्हारी बंबई में, रोज़ खाऊंगा।
मैं तक़रीबन हफ़्ता भर रहा वहां। वो सिगरेट-पान के पैसे लेने से इंकार करता रहा। मैंने बहुत ज़ोर दिया तो सिगरेट के दाम लिए लेकिन पान के नहीं। यह तो प्यार की निशानी है।
चलते वक़्त मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए। जोर से दबाये। कस कर गले मिला। उसकी आंखें नम थीं। मैं भी नहीं रोक पाया अपने को। 
उसी दौर में ऐसा ही वाकया चंडीगढ़ में पेश आया।
सुखना लेक से सेक्टर सत्रह। रिक्शावाला तैयार हो गया। लेकिन पैसे ज्यादा मांग रहा था। कोई और दिखा नहीं। शाम ग़हरी हो रही थी। मरता क्या न करता। चल भाई। तेरी ही जै जै।
यों भी मैं रिक्शे वाले से ज्यादा झंझट नहीं करता। कितना अमानवीय है? आदमी, आदमी को ढोता है। नहीं बैठूंगा तो यह खायेगा कहां से?
शक़्ल, डील-डौल और भाषा से वो अपने यूपी का लग रहा था। पहले सोचा, जाने दो। मुझसे क्या मतलब?
लेकिन टाईम पास करना था। पूछ ही लिया।
बाराबंकी का निकला। मैंने कहा मैं लखनऊ का हूं।
पैसे देने लगा तो हाथ जोड़ दिये। अपने पड़ोसी हैं आप। ज़बरदस्ती दिये, तय से भी दुगने। 
हां, उसकी बीड़ी भी पी। उसकी आंख में आंसू छलछला आये।
उन्हीं दिनों बिलासपुर जाना हुआ। मामा रहते थे मेरे वहां।

करीब चालीस किलोमीटर दूर अकलतरा क़स्बा था। छोटा सा फ्लैग स्टेशन। फिर वहां से करीब दो-तीन किलोमीटर दूर था गांव।
मेरा एक क़लम मित्र था वहां। नाम भूल गया हूं। स्कूल में मास्टर था। लखनऊ के नज़दीक इटौंजा का रहने वाला।
बहुत खुश हुआ मिल कर। इतनी दूर से कोई मिलने आया है। अपने देस का बंदा। आस-पास वालों को बुला लाया। लगा सारा गांव इकट्टा कर लेगा। लोग मुंह में उंगली दबा मुझे अचरज से देखने लगे। जैसे किसी दूसरे ग्रह से आया हूं। 
उसके मुंह से शब्द कम निकलते थे और आंसू ज्यादा। देस से कोई आया है, मुद्दत बाद।
मैं तीन घंटे रहा वहां पर। रोता ही रहा वो। दो-तीन घंटे और बैठता तो एक और गंगा जी का उद्गम हो जाता।
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22-09-2015 mob 7505663626
D-2290, Indira Nagar,
Lucknow-226016
  


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