-वीर विनोद छाबड़ा
आज आशा
भोंसले का ८२ साल की हो गयीं हैं।
आशा दी
जिन बुलंदियों पर हैं वहां तक पहंचने के लिए निसंदेह उन्होंने अथक मेहनत की है। आशा
दी ने जब गायन क्षेत्र में कदम रखा तो बहुत
बड़ी चुनौती थी उनके सामने। बड़ी बहन लताजी
की छोटी बहन होने का उनको कोई लाभ नहीं मिला। इसके अलावा शमशाद बेगम और गीता दत्त का
भी बोलबाला था। ख़राब औरत पर फिल्माए जाने वाले गानों के लिए उन्हें मौका मिला। उस दौर
में बड़ी गायिकाओं को पसंद नहीं होता था कि उनकी आवाज़ खलनायिका को दी जाये। ज्यादातर
बी और सी ग्रेड की फ़िल्में उनके हिस्से आयीं।
आशा दी
की ओपी नैय्यर से मुलाक़ात हुई। आशा दी का मुकद्दर ही बदल गया गया। सीआईडी के युगल गीत
- ले के पहला पहला प्यार… में उनको रफ़ी और शमशाद बेगम के साथ कुछ पंक्तियां मिलीं। नैय्यर और लताजी में पैदाइशी
अनबन थी। एक दूसरे के साथ काम न करने की अलिखित क़सम खा रखी थी। नैय्यर ने तो पूरी तरह से ठान ली कि एक दिन लता
से बड़ी लता दुनिया को दिखा देंगे। उन्हें अपनी आशा को आशा में पूरा होते दिखा।
नैय्यर
ने आशा की आवाज़ और सुर को सुधारना और संवारना शुरू किया। इस नई प्रतिभा को उपयोग बीआर
चोपड़ा की 'नया दौर'
में किया। हालांकि उसमें कोई सोलो नहीं था। लेकिन रफ़ी के साथ
युगल गीतों में आशा की जोड़ी जम गयी। साथी हाथ बढ़ाना…उड़े जब जब ज़ुल्फ़ें तेरी…मांग
के साथ तुम्हारा…ने तहलका मचा दिया।
आशा की
आवाज़ का जादू दिल-ओ-दिमाग़ पर चढ़ कर बोलने लगा। इसके
बाद रफ़ी के साथ नैय्यर ने उन्हें
- मैं प्यार का राही हूं (में मुसाफिर एक हसीना).…इशारों इशारों में दिल लेने वाले…और दीवाना
हुआ बादल (कश्मीर की कली)…आये हैं दूर से मिलने हुज़ूर से…सर पे
टोपी लाल हाथ में रेशम का रुमाल…और देखो
कसम से देखो कसम से…(तुमसा नहीं देखा) गवाया।
सोलो
में आशा को आइये मेहरबान (हावड़ा ब्रिज) …ये है रेशमी ज़ुल्फ़ों का अंधेरा…और जाइए
आप कहां जायेंगे (मेरे सनम)…आओ हुज़ूर तुमको बहारों में ले चलूं…नैय्यर
ने बुलंदियों पर पहुंचा दिया।
बताया
जाता है कि आशा के पारिवारिक जीवन में उन दिनों भारी उथल पुथल थी। ऐसे में नैय्यर ने
उन्हें न सिर्फ इमोशनली मज़बूत किया बल्कि प्रोफेशनली भी मज़बूत किया। यह एक और ट्रेजेडी
है कि बाद में किन्हीं नामालूम कारणों से नैय्यर और आशा में १९७२ में अलगाव हो गया।
नैय्यर
के साथ आशा दी ने आख़री दफ़े 'प्राण जाये पर वचन न जाये( रिलीज़ १९७३) के लिए ये गाना रेकॉर्ड किया था - चैन से
हमको कभी जीने न दिया… मज़े की बात ये है कि आख़िरी लम्हों में ये गाना फिल्म से हटा दिया गया। परंतु यहां
एक और विचित्र घटना हुई। आशा दी को सर्वश्रेष्ठ गायिका का फिल्मफेयर अवार्ड इसी गाने
के लिए मिला।
ज्योतिष
विद्या में यकीन करने वाले नैय्यर ने एक इंटरव्यू में बताया था - मुझे शुरू से मालूम
था कि मैं और आशा हमेशा साथ नहीं रहेंगे। हमें अलग होना ही होगा। आशा से अच्छा कोई
दूसरा मेरी ज़िंदगी में नहीं आया।
लेकिन
आशा दी ने अपने जीवन में ओपी नैय्यर के महत्व को स्वीकार नहीं किया। एक इंटरव्यू में
उन्होंने कहा - मुझे जो कुछ मिला मेरी प्रतिभा के दम पर। 'नया दौर' में कैरियर
के बूस्ट का कारण प्रोड्यूसर-डायरेक्टर बीआर चोपड़ा हैं न कि कोई और।
आशा दी
से संबंधित एक और मशहूर वाक्या।
चीन ने
दोस्ती के नाम पीठ में छुरा घोंपा था। परिणाम युद्ध में हुआ। जान-माल का काफ़ी नुकसान
हुआ। देश क्षुब्द और निराश था। मनोबल ऊंचा करने के लिए के २७ जनवरी १९६३ को दिल्ली
के रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी में कार्यक्रम आयोजित
हुआ। दुनिया ने लताजी ने 'ऐ मेरे वतन के लोगों…' लाइव परफॉर्म करते देखा। पूरे देश की आंखें भर आईं थीं।
लेकिन
वास्तविकता यह थी कि इस गाने के लिए मूल पसंद लता नहीं आशा थी। सी०रामचंद्र ने इसकी
धुन तैयार की। उन दिनों उनकी लता से ज़बरदस्त तनातनी थी। अतः आशा भोंसले के साथ रिहर्सल
हुई। फ्लाईट भी बुक हो गयी। लेकिन गीतकार प्रदीप लता को चाहते थे। इधर लता भी इस ऐतिहासिक
मौके को किसी भी कीमत पर गंवाना नहीं चाहती थीं। सी०रामचंद्र को मतभेद भी भुला देने
का संदेशा भेजा। लता ने आशा को समझा-बुझाया। बड़ी बहन का वास्ता दिया। आशा मजबूर और
भावुक हो गयी। ऐन मौके पर बीमारी के बहाने जाने से मना कर दिया।
मैं सोचता
हूं उस दिन मंजर क्या होता अगर लताजी की जगह
आशा दी गा रही होतीं - ऐ मेरे वतन के लोगों…
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