-वीर विनोद छाबड़ा
सुबह-सुबह दस्तक हुई। एक तकरीबन गंजा आदमी खड़ा है। उसने बंदे
को कस कर जफ़्फ़ी मारी - मैं मोहन लाल चड्ढा।
बंदा उछल पड़ा - ओए, मोड़ी कंचे वाला। मेरा
निक्कर फ्रेंड।
मोड़ी तो दार्शनिक हो गया। रोज़ी-रोटी और वक़्त की आंधी ने जुदा
कर दिया था, लेकिन वाह री किस्मत। आज चालीस साल फिर मिल गए। तार से तार जोड़ते
हुए तलाश ही लिया तुझे। बेमिसाल प्यार की निशानी। वरना तू कौन और मैं कौन? सगे भाई को लोग नहीं
पहचानते।
बंदे ने मेमसाब से परिचय कराया - बस यों समझो बचपन में मेले
में खोया भाई बुढ़ापे में मिला। इनके बेटे की शादी है। कह रहे हैं कि हर हाल में आना
है।
लेकिन मेमसाब ऐन मौके पर बिदक गयीं। मुंह से सिगरेट की बदबू
आती है। मेंढक जैसी आंखें और तोते जैसी नाक। यों भी मेमसाब को वो आदमी सख़्त नापसंद
है जो बारात को लड़की वालों के मत्थे मढ़ता है। खुद पार्टी नहीं करता। मेमसाब को मायका
याद आता है - ऐसे चालाक लोगों के यहां खूब खाओ-पियो और खाली लिफ़ाफ़ा पकड़ा कर चल दो।
आख़िरकार बंदे को अकेले ही जाना पड़ा। चार-चार मैरिज लॉन,
एक के बाद एक। अंदाज़ से एक में घुस लिया। डिस्को का बेतरह शोर। बंदा वहां किसी
को पहचानता ही नहीं। कैसे ढूंढे मोड़ी को? लेकिन किस्मत अच्छी
थी। थोड़ी क़वायद के बाद मिल गया। शानदार क्रीम कलर का गलेबंद सूट। बंदे ने सोचा मोड़ी
उसे देख लिपट लिपट जायेगा - देखो भाइयों, यह है मेरा निक्कर
फ्रेंड।
मगर मोड़ी ने ऐसा कुछ नहीं किया। सूट ख़राब होने के डर से वो पीछे
खिसक गया। उलटे बंदे के हाथ से लिफ़ाफ़ा तक़रीबन छीन कर बैग में रख लिया। पूछा भी नहीं
कि भाभी कहां है?
बंदा इस बेआवाज़ ज़ोर के झटके से अभी संभला ही नहीं था कि देखा
मोड़ी गायब हो चुका है। उसे घूम-घूम कर वसूली जो करनी है।
लोग खाने पर ऐसे टूटे पड़े हैं जैसे पहले कभी खाया नहीं। बंदा
खुद से सवाल-जवाब कर रहा है - इस भीड़ में कैसे घुसूं? छोड़ो, घर जा कर खाऊंगा। लेकिन
यार तूने तो भारी लिफ़ाफ़ा दिया है। मुफ़्त में तो खाना नहीं।