Sunday, November 29, 2015

और मैनेजर ने हमें डांटा - पागल है क्या तू?

- वीर विनोद छाबड़ा
यों हम राजकपूर, देवानंद और अशोक कुमार की अदाकारी के दीवाने रहे हैं, लेकिन दिलीप कुमार हमारी पहली पसंद रही है। शायद ही कोई फ़िल्म छोड़ी हो उनकी।
उस दौर में उनकी बकवास फ़िल्म भी कई दफ़े देखते थे हम। उन्हें युसूफ भाई भी कहा जाता था। हद से ज्यादा इज़्ज़त करने वाले यूसुफ साहब कहा करते। कुछ लोग खां साहेब भी कहते थे।

हमारे एक दिवंगत सीनियर पिक्चरबाज़ मित्र कृष्ण मुरारी सक्सेना उर्फ़ मुरारी भाई तो नाराज़ हो जाया करते थे कि दिलीप कुमार को दिलीप साहब क्यों नहीं संबोधित किया? यों वो कई बार अमिताभ बच्चन को अमिताभ साहब नहीं कहने पर भी भिड़े। उन्हें तो यह तक याद रहता था कि फलां फ़िल्म किस साल के किस महीने और लखनऊ के किस थिएटर में रिलीज़ हुई, किस क्लास में और किसके साथ देखी। तीन घंटे की फ़िल्म की कहानी बड़ी तफ़सील में तीन दिन तक कई सिटिंग में बयां करने का उनका अंदाज़ निराला भी हुआ करता था। 
पिक्चरबाज़ी के मामले में बहुत नहीं तो मुरारी भाई के थोड़ा पीछे हम भी थे। अनेक फ़िल्में हमने मिश्रा जी के साथ देखीं। अस्सी का दशक ख़त्म होते-होते सिनेमा के प्रति प्रेम एकाएक ख़त्म हो गया। शायद इस वज़ह से कि फ़िल्म बनाने वालों और फ़िल्में देखने वालों की एक नयी पीढ़ी आ गयी जिनके शौक और सरोकार हमसे मेल नहीं खाते थे। हमारी प्राथमिकताएं भी बदल गयीं। 
बहरहाल, हम बता रहे थे कि दिलीप साहब की फिल्मों के प्रति दीवानगी का आलम यह था कि अक्टूबर १९६७ में जब 'राम और श्याम' रिलीज़ हुई तो हमने उसे कई दफ़े देखा। उन दिनों हम दिल्ली टहलने गए हुए थे। लिबर्टी में पहला दिन, पहला शो देखा। हफ़्ते बाद लखनऊ लौट कर आये तो नॉवेल्टी में देखी। सिल्वर जुबली तक हमने इसे पांच मर्तबे देख मारा। वहां से हटी तो घटी दरों पर अमीनाबाद के नाज़ टॉकीज़ में लगी। वहां हमने इसे लगातार पांच दिन फ्रंट क्लास में देखा।
उन दिनों नाज़ में टिकट नहीं मिलता था बल्कि हाथ पर मोहर लगती और कार्बन पेंसिल से सीट कर नंबर बड़ी बेदर्दी से हथेली पर लिख दिया जाता। बहरहाल, जब हम छटे दिन भी फ़िल्म देखने पहुंचे तो गेटकीपर ने हमें कालर पकड़ कर रोक दिया। हम भी भिड़ गए - हमारी पसंद है। हमारा पैसा है। तेरे पेट में मरोड़ क्यों?

लेकिन वो नहीं माना और हमें पकड़ कर मैनेजर के पास ले गया। बहुत डांटा मैनेजर न हमें - पागल है क्या तू?
उसने हमारा पता पूछा और धमकी दी - पागलखाने में भर्ती करा दूंगा।
हम किसी तरह हाथ-पांव जोड़ कर वहां से भागे। हम ऐसा डरे कि उस दिन के बाद हमने नाज़ में कभी कोई फ़िल्म नहीं देखी। तीन-चार साल से यह थिएटर बंद है।
आज भी पुरानी फ़िल्में दिखाने वाले किसी चैनल पर 'राम और श्याम' दिखती है तो हम छोड़ते नहीं। वो दिन याद आता है जब गेटकीपर ने रोका था। अपने जुनून पर हंसी आती है। और मन ही मन कहते हैं - अब रोको हमें।
ताकि सनद रहे की ग़रज़ से हम यह भी बताते चलें कि दिलीप साहब की दोहरी भूमिका वाली यह फ़िल्म एक तेलगु फ़िल्म का रीमेक थी और इस  थीम पर आगे भी चार फ़िल्में बनीं - सीता और गीता, चालबाज़, किशन कन्हैया और गोपी कृष्ण। सब की सब सुपर हिट।
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२९-११-२०१५  mob 7505663626
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