-वीर विनोद छाबड़ा
कभी एक रूपए में १०० पैसे होते थे। लेकिन आज की पीढ़ी नहीं जानती। जानती भी होगी
तो उसने कभी देखे नहीं होंगे।
हमने तो वो ज़माना देखा है जब एक रुपए में ६४ पैसे और सोलह आने हुए करते थे। दो
पैसे की दुअन्नी, चार पैसे की इकन्नी, इसी तरह दुअन्नी और अठन्नी भी। १९५७ से सब उल्टा-पुल्टा हो गया। अंग्रेज़ों के ज़माने
के जॉर्ज पंचम और क्वीन विक्टोरिया वाले सिक्के और नोट गए।
नया रुपया आ गया और उसमें १०० नए पैसे। कुछ साल बाद 'नया' शब्द हटा दिया गया।
तब तक पुरानी करेंसी काफ़ी हद तक चलन से गायब हो चुकी थी। लेकिन छेद वाला पैसा अरसे तक हमने ताबीज़ के साथ
बंधा हुआ देखा। शायद यह तांबे का होता था।
पाई भी होती थी। लेकिन हमने देखी कभी नहीं। सुनते बहुत थे कि 'पाई' भी होती थी। लेकिन
कभी नहीं देखी।
तब सच्ची बात पर टिप्पणी की जाती थी - सोलह आने सही। आज चलन है - वन हंड्रेड परसेंट
करेक्ट।
अब तो एक रूपए से कम मूल्य के अशोक की लॉट वाले सारे सिक्के भी गायब हो चुके हैं।
लेकिन 'सोलह आने सही' गाहे-बगाहे चल रहा है।
उस दिन हम बाज़ार में थे जब हमारे मुहं से निकल अनायास ही निकल गया - सोलह आने सही।
एक नौजवान ने हमें एक बार सर से पाँव तक निहारा। फिर मुस्कुरा कर चल दिया।
हमने अनुमान लगाया कि मन ही मन ज़रूर कहता होगा - सिक्सटी प्लस है। अंग्रेज़ों के
ज़माने का।
सही सोचता है वो। सिक्सटी प्लस को ही अंग्रेज़ों के ज़माने के सिक्के याद होंगे।
ऐसे में हमें याद आता है, कभी हम भी नई पीढ़ी थे। जो आज की पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के बारे में सोचती है ऐसा हम
भी सोचते थे। यह सिलसिला तो बाप-दादा के काल से चला आ रहा है। शिकायतों का दौर भी चलता
आया है। हर दौर की अपनी ज़रूरतें और प्रतिमान होते हैं।
लेकिन आजकल का 'लिहाज़' कल के मुकाबले ज़रूर कुछ कमजोर है। नए को पुराने को सुनने का धैर्य नहीं हैं। वक़्त
ही नहीं है।
इसका एक उदाहरण दूं।
ज़माना पहले भरी बस में कोई महिला चढ़ी या बुज़ुर्ग। नौज़वान उठ कर खड़े हो जाते थे।
होड़ मचती थी - नही हज़ूर, पहले आप।
आज कोई भूले-भटके ही उठता है।
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