-वीर विनोद छाबड़ा
साठ और सत्तर के दशक
में मैं रेलवे स्टेशन के ठीक सामने ही रहता था। पिताजी रेलवे में थे। इस नाते रेल हमारी
संपति हुआ करती थी।
आईस-पाईस खेलते हुए
स्टेशन पहुंच जाते। खेल भूल कर एक नंबर प्लेटफॉर्म पर व्हीलर पर जम जाते। राजा भैया,
बालक, मनमोहन, पराग और चंदामामा के पन्ने पलटने शुरू। जो
पसंद आई, उठा ली। पैसे पिता जी देंगे। व्हीलर का मालिक चूंकि पिता जी
को जानता था इसलिये मुस्कुरा देता।
कई बार तो पिताजी ही
धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान लेने भेजते थे। इस तरह बार-बार बुक स्टाल पर जाने
से बुक स्टाल मेरी कमजोरी बन गया। जो अभी तक जारी है। बुक स्टाल देखा नहीं कि खड़े हो
गए। भले दो मिनट के लिए सही। इस दो मिनट में एक आध मैगज़ीन तो खरीद ही लेता हूं।
हां, तो मैं बता रहा था
कि बाल पत्रिकाओं के प्रति रुझान के बारे में। उन दिनों शमा ग्रुप से उर्दू में एक
बाल पत्रिका आती थी - खिलौना। पिताजी इसमें से रोचक कहानियां पढ़ कर हमें सुनाया करते
थे। पराग पढ़ पढ़ कर मैंने आर्ट और क्राफ़्ट खूब सीखा। सबसे प्रिय था माचिस की खाली डिब्बियों
को जोड़ कर मकान या सोफ़ा बनाना। फिर उस पर चिकना कागज़ चिपका देना। इसके लिए हम रोज़ सुबह-सुबह
उठ जाते और पान-बीड़ी के दुकानों के आसपास फेंकी गयी खाली माचिस की डिब्बियां बटोर लाते।
मित्रों के जन्मदिन पर उपहार में भी यही दे आते थे।
दसवीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते
बाल पत्रिकाओं के प्रति शौक कम हो गया। लेकिन चंदामामा मैंअरसे तक बदस्तूर पढता रहा।
बाल पत्रिकायें पढ़नी
मैंने भले कम कर दीं लेकिन बच्चों से नाता नहीं टूटा। बड़े हो जाने के बावजूद मेरा बालमन
बार-बार बचपन की वापस धकेलता रहा। इससे प्रेरित होकर मैंने पराग और लोट-पोट में ढेर
कहानियां लिखीं। आकाशवाणी लखनऊ में बाल जगत और आओ बच्चों के कार्यक्रमों से गाहे-बगाहे
कहानी पाठ के लिये निमंत्रण भी चला आता। यह सिलसिला कोई पंद्रह साल पहले बिलकुल ही
टूट गया।
आज भी जब मैं खुद को
टेंशन में पाता हूं या रिलैक्स होने का मन होता है तो बालहंस पढ़ लेता हूं या फिर नंदन।
बहुत सुख मिलता है। फर्स्ट क्लास नींद आ जाती है। चित्रकथाएं भी अच्छी लगती हैं।
हालांकि अब पहले जैसा
कुछ भी नहीं रहा। फिर भी बाल पत्रिकायें शांति प्रदान करती हैं। सरल और सुबोध भाषा।
सीधे मन में उतर जाती है। समझने के लिए दिमाग पर जोर नहीं देना पड़ा कभी। समय और ऊर्जा
दोनों की बचत। और सबसे बड़ी तो यह कि इसी बहाने बहुत पीछे छूट गया बचपन कुलाचें मारने
लगता है।
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17-11-2015 mob 7505663626
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सुन्दर रचना ..........बधाई |
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