Wednesday, November 18, 2015

बेसन का हलवा तो मां ही बनाती थी।


- वीर विनोद छाबड़ा
यूं तो हमें हर तरह का हलवा पसंद है, लेकिन सबसे ज्यादा बेसन का।
हमारे बचपन  के दिन थे। सात-आठ साल की उम्र रही होगी। गर्मी की छुट्टी बिताने नानी के घर भोपाल गए थे।

उन दिनों की नानियां बड़े जिगर वाली होती थीं। बड़ी ख़ुशी ख़ुशी बेटियों को उनके अव्वल दर्जे के शरारती बच्चों सहित दो-दो महीने बर्दाश्त लेती थीं।
हमें शुरू से ही टिक कर नहीं बैठने और हर चीज़ को छेड़ने की आदत रही है। इसी क्रम में हमने बिजली के सॉकेट में अपनी छोटी उंगली डालने की कोशिश की, यह देखने के लिए कि इसकी गहराई कितनी है।
नतीजा, जोर का करेंट लगा। हम ज़ोर से चीखे और झटके से दूर जा गिरे। लेकिन उंगली को कुछ नहीं हुआ। अंगूठे पर ज़रूर चोट लगी। खूनो-खून हो गया। मां ने अंगूठे को अपने दुपट्टे से लपेट कस कर दबा दिया। नानी सरसों का तेल गर्म कर लाई। खून रुक चुका था तब तक। नानी ने तेल लगा दिया। उस दौर में हर चोट के लिए सरसों का तेल ही फौरी मरहम का काम करता था।
लेकिन हमारा रोना नहीं रुक रहा था। मां ने बहलाने की बहुत कोशिश की। एक टका (दुअन्नी) भी रखा हाथ पर। लेकिन हम थे कि माने ही नहीं। मां को गुस्सा आ गया। जड़ दिया एक चांटा। रुकने की जगह रोना और भी बढ़ गया। तभी नानी को एक उपाय सूझा। बेसन का गरमा-गर्म हलवा बना लाई। इससे पहले इसका हमने कभी नाम ही नहीं सुना था। उस दिन हम पहली बार खाने जा रहे थे। हम झिझक रहे थे। तब मां ने चम्मच में थोड़ा सा हलवा भरा। तीन-चार बार फूंक मारी। उंगली की कोर से छुआ। ठंडा हो गया था। हाथ से हमारे गालों को दबाया। हमारा मुंह खुल गया। डाल दिया चम्मच मुंह में। बहुत टेस्टी लगा। मां ने पूछा, कैसा लगा। हमने सर हिला दिया। मां ने कटोरी स्टूल पर रख दी, खा धीरे-धीरे। हम धीरे धीरे ही खाते रहे ताकि देर तक चले।

उस दिन के बाद से बेसन का हलवा हमारे लिए मरहम बन गया और कमजोरी भी। साईकिल चलाना सीखते हुए कई बार गिरे। मां ने बेसन का हलवा बना दिया। दर्द भूल गए। राशन की लंबी दुकान से अमरीका का बेस्वाद पीएल-४८० लाल गेहूं और चीनी पीठ पर लाद लाये तो मां ने ईनाम के तौर बेसन का हलवा बना दिया। डिपो से कोयला मंगवाना रहा हो या टाल से जलावनी लकड़ी या आरा मशीन से बुरादा, मां ने बेसन के हलवे का ही लालच दिया। छठा पास किया या दसवां, यहां तक कि त्रिपुल एमए पास हुए, मां बेसन का हलवा अपने लाल को खिलाना नहीं भूली।

पूरे ख़ानदान को ख़बर थी हमारे और बेसन के हलवे के दरम्यां इश्क़ की। मामा के बेटा पैदा हुआ। ख़बर देने मौसी के घर गए। अठन्नी के साथ बेसन का हलवा मिला। चाचा के बेटा हुआ तो बुआ ने बनाया बेसन का हलवा।
जब तक मां ने हमारा ख़्याल रखा, बेसन के हलवे की हम बारिश होती रही। लगाम मां के हाथ से छूटने के बाद हमें कई नुकसान हुए, उसमें बेसन का हलवा टॉप पर रहा। तरसते ही रहे हैं। भूले-भटके ही ज़बान पर रखने भर को मिला है। ख़ासतौर पर हमारे लिए तो मां ही बनाती थी। उसके बनाये बेसन के हलवे का  तो स्वाद ही निराला था। यारों सच में, मां जैसी दूजी कोई नहीं।
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