-वीर विनोद छाबड़ा
हमारे शहर में एक हॉस्पिटल
है। वृद्धा आश्रम ही समझ लो।
यहां पचास साल से ऊपर
वाले ही भर्ती किये जाते हैं। खासतौर पर वो जिनके पास मैनपॉवर नहीं है। नौकरी कर लें
या बैठें मरीज़ के पास। ऐसे लोग अपने परिजनों को यहीं छोड़ जाते हैं। सुबह या शाम एक
चक्कर लगा लिया। कुछ तो महीने दो महीने के लिये दूसरे शहर या विदेश भी चले जाते हैं।
मरीज़ जब चंगा हो गया तो घर चला गया।
हमें कई बार जाना हुआ
है वहां। ऐसों-ऐसों को देखा जिन्हें कुछ याद नहीं। खाना और पाखाना करना भी याद नहीं
रहता। कोई भी इंद्रिय काम नहीं करती। कोई अस्सी का है तो कोई नब्बे पंचानवे का। दर्द
से बिलबिलाते रहते हैं। सिस्टर आ कर उन्हें प्यार से दुलारती है, डांटती भी है। उनके
डायपर भी बदलती है और चद्दर भी। जैसे कोई मां बच्चे से मुख़ातिब हो। एक्सर्साइज़ भी कराती
है। चलना भी सिखाती है। किसी-किसी को तो अपने हाथ से खाना खिलाती भी है। उनके परिजन
उन्हें मरने के लिए छोड़ गए हैं। दरअसल उन्हें मरना ही है। डॉक्टर घोषित कर चुके हैं।
अंग शिथिल हो चुके हैं। कोई जब घड़ी आती है तो खबर कर दी जाती है। यह एक क्रूर सत्य
है।
एक साहब मिले। बिलकुल
हट्टे-कट्टे।
हमने पूछा आप यहां
क्यों?
बोले कैंसर है। अस्सी
प्लस हूं। न जाने कब बुलावा आ जाये। बच्चों के पास फ़ुरसत नहीं। उनकी गलती नहीं। कभी
यहां तो कभी वहां। ये आज का दौर है। ग्लोबलाईज़ेशन का। सब दूर-दूर बिखरे पड़े हैं। संयुक्त परिवार रहे नहीं।
न चाहते हुए भी रिश्ते टूट गए हैं। पत्नी भी नहीं है। मुझे पेंशन मिलती है। सब यहीं
खर्च हो जाती है। मन भी लगा रहता है। अख़बार, रिसाले और पुस्तकें
पढता हूं। हिंदी उर्दू और अंग्रेज़ी कुछ भी मिल जाये। के दूसरे मरीज़ों से मिलता हूं।
उन्हें हौंसला देता हूं। पॉजिटिव बनो। गुड नाईट। कल मिलेंगे ज़िंदा रहे तो। नहीं तो
ऊपर जाकर। खाना भी यहीं मिलता है। चार-पांच दिन पर कोई दोस्त या रिश्तेदार भूले भटके
आ जाता है। उस दिन अच्छा खाना मिलता है।
तभी बरेली से मिलने
उनके रिश्तेदार आ गए। वो बोले - आज का दिन ख़राब गया। शाम को जायेंगे तो खुद तो रोयेंगे
ही मुझे भी रुला देंगे।
हमें अपनी एक कैंसर
ग्रस्त सहकर्मी आती है। पचास से ऊपर थी। शादी नहीं की थी। भाई-बहनों के लालन-पालन और
फिर ब्याहने में खुद को इतना मसरूफ़ कर लिया कि शादी करने की फ़ुरसत ही नहीं मिली। उसे
देखने-भालने वाला कोई नहीं। मैंने उन्हें उस हॉस्पिटल का पता दिया। लेकिन बहुत देर
हो गयी थी। मुश्किल से बारह घंटे भी नहीं काट पायीं।
देश के एक प्रसिद्ध
व्यंग्यकार ने अपने आख़िरी दिन यहीं गुज़ारे थे।
यह प्राईवेट है। इसलिये
बहुत महंगा है। बड़े लोग, बड़ी बातें।
नोट - मित्रों रात
बहुत देर गए यह पोस्ट लिखी है। मन में जब कुछ स्ट्राईक हो और नींद न आये तो व्यर्थ
वक़्त न गंवाओ। लिख डालो। न जाने सवेरा हो न हो। बाकी ज़माना जाने।
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21-11-2015 mob 7505663626
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