Sunday, November 8, 2015

कथाक्रम-२०१५ - संस्कृति का संकट : लेखक का दायित्व।

-वीर विनोद छाबड़ा
हिंदी कथा साहित्य पर केंद्रित दो दिवसीय कार्यक्रम कथाक्रम एवं उ.प्र. हिंदी संस्थान के संयुक्त तत्वाधान में ०७ नवंबर से प्रारंभ हुआ।

प्रथम सत्र।
अध्यक्षता उ.प्र.हिंदी संस्थान के अध्यक्ष तथा सुप्रसिद्ध लेखक उदय प्रताप सिंह ने की। मंच पर उनके साथ दूधनाथ सिंह, शैलेंद्र सागर, रोहिणी अग्रवाल और अखिलेश थे। इसमें आनंद सागर स्मृति कथाक्रम-२०१५ पुरुस्कार इस बार प्रसिद्ध कथाकार अखिलेश को दिया गया। अखिलेश साहित्यिक
पत्रिका तद्भव के संपादक भी हैं। उनका उपन्यास 'निर्वासन' विगत एक वर्ष से सर्वाधिक चर्चा में रहा।

लेखिका मीनू अवस्थी ने सम्मान पत्र का वाचन किया और लेखिका श्रुति ने संचालन किया।
सुप्रसिद्ध लेखिका रोहिणी अग्रवाल ने बताया कि अखिलेश की खूबी यह है कि वो वर्तमान से जूझते हैं। भावुकता से दूर रहते हैं। अखिलेश प्रतिरोध करते हुए पाठक को अपने साथ जोड़ते हैं। उनके भीतर का आक्रोश उनके नवीनतन उपन्यास निर्वासन में बाहर आता है। वो राजनीति को अपना मुहावरा बनाते हैं। अघोषित युद्ध घोषित करते हैं। तकनीकी क्रांति इसलिए आई कि विचार, चिंतन, मूल्य और विवेक विलुप्त हो जायें। २१वीं सदी में छुटभैयावाद पनपा है जिसने अपने लक्ष्य को पाने के लिए परिवार तक की बली चढ़ा दी। निर्वासन बड़े फ़लक का उपन्यास है। समय और संबंधों की जांच करता है। मार्क्सवादी परिदृश्य है। परंतु वहां गाय, धोबी, लुहार और मंदिर हैं। खुशहाली है। समाज के उच्च तबके को खुश करने के लिये वेश्याएं भी हैं और नाजायज बच्चे भी। पलायन में पलायन है। इसमें नायक का आत्मविश्लेषण ही नहीं समय का विश्लेषण भी है। वो स्त्री को गौड़ नहीं बनाते। स्त्री मनवांछित परिवर्तन करती है, आलोचना करती है, सृजनात्मकता है उसमें और पत्रकार भी है। वो वर्तमान को भविष्य से जोड़ती है। अखिलेश रचनाओं में लघु मानवों को केंद्रित करते हैं। इसीलिए वो औरों से अलग हैं।


कथाक्रम-२०१५ से सम्मानित अखिलेश ने कहा - सम्मान पाना जितना मुश्किल होता है और इसे पाने के बाद बोलना बहुत ही मुश्किल। जो विश्वास प्रकट किया उसे ग़लत साबित नहीं करूंगा, इस तरह का रूढ़िवादी विचार प्रकट नहीं करूंगा। कुछ अलग कहूंगा। मन की बात तो अब कलुषित हो चुकी है। दिल और दिमाग की बात करूंगा। जीने का संकट होगा तो लेखन के संकट का भी दौर होगा। शब्दों के संकट का भी दौर होगा। जब मानव पर प्रहार होगा तो शब्द भी सुरक्षित नहीं होंगे। ऐसे में लेखक क्या करे? लेखक की आकांक्षा एक खूबसूरत दुनिया के सृजन की होती है। उसके पास इसके लिए कोई स्पष्ट ख़ाका नहीं होता। वो स्थिर नहीं है। अर्द्धपारदर्शी दृश्य हैं। यही लेखक को निबंधात्मक स्थिति में ले जाता है। लेखक के लिए यह पृथ्वी और इसमें बसा संसार व इंसान सबसे सुंदर है। इसमें मुफ़लिसी भी है। हम इस धरती से प्यार करते हैं। बहुत रंग और धवनियां हैं। विविधतायें हैं और किस्में हैं। आज कोई जन्नत में नहीं जाना चाहेगा। जन्नत में सब ख़त्म हो जाएगा। सब एक समान हो जायेगा। आज हमला हो रहा है। इंसान का सपना तोड़ा जा रहा है। उसे विरोध करने से रोका जा रहा है। भूमंडलीकरण अर्थात एक रंग से रंगने का अभियान शुरू। एक राष्ट्र, एक भाषा, एक धर्म का होना और विविधिताओं का नष्ट होना। अब तक दूसरे शहरों में सम्मानित हुआ। आज अपने शहर में, अपने मित्रों और परिवार के बीच और अपने गुरू दूधनाथ सिंह जी सामने सम्मानित एक अलग ही बात है।

सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कथाकार व मुख्य अतिथि दूधनाथ सिंह ने कहा कि मुख्य खोज तो सुख है। सब कहानियां बेहतर ज़िंदगी के बारे में कहती हैं। अखिलेश का निर्वासन जड़ों की तलाश करता है। जातिवादी समाज का व्याख्यापित करता है और उसमें लेखक/नायक अपने को स्थापित करता है। लेखन के धर्म के प्रति ईमानदारी के कारण अखिलेश को अच्छा मानता हूं। समाज में रहने की कितनी तकलीफें हैं लेखक उसे उजागर करता है। शिष्य को बधाई देता हूँ कि उसने इतना अच्छा काम किया। उसमें सूखापन भी है और ठंडापन भी। और सुख भी हैजो शीतलता का आभास भी कराता है।

कार्यक्रम के अध्यक्ष और सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लेखक, कवि व चिंतक उदय प्रताप सिंह ने  कहा - बड़ी कविता वही है जो विश्व को सुंदर बनाती है और सत्ता इसे सुनियोजित तरीके से खराब करती है। यह बहुत चिंता की बात है। आईना तोड़ा जा रहा है। दलित बच्चों को नृशंसता से जला दिया गया और मंत्री कह रहे हैं कि हर कुत्ते के मरने के लिए सरकार ज़िम्मेदार नहीं है। अफ़वाह को आधार बना कर नृशंस हत्या की गयी और कहा जाता है कि ऐसी घटनायें होती रहती हैं।  शिवाजी के सैनिक जीत की ख़ुशी में हारी हुई जनता में से औरत बंदी बना लाये। उसका नाम गौहर था। शिवाजी ने उसे मां का दर्जा दिया। यह संस्कार था। वो महामानव थे। लेकिन अब दूसरी कहानी सामने लाई जा रही है की शिवाजी ने यवन को झुक कर प्रणाम नहीं किया था। महाराणा प्रताप जैसे योद्धा की मूर्ति के नीचे हिंदू लिखा गया, जबकि उनका सेनापति एक मुसलमान था। संकीर्णता के बीज बोये जा रहे हैं।

दूसरा सत्र।
संस्कृति के संकट : साहित्य का दायित्व।
इस सत्र की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध एवम वरिष्ठ कथाकार गिरिराज जी ने की। मंच पर उनके साथ रहे डॉ मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, रवींद्र वर्मा, मैत्रेय पुष्पा, पंकज बिष्ट और प्रणय कृष्ण।
सत्र का संचालन सुप्रसिद्ध लेखक देवेंद्र किया।


प्रणय कृष्ण ने विषय का प्रवर्तन करते हुए कहा - असहिष्णुता के अर्थ अर्थ गड़े जा रहे हैं। एक ऐसे दौर में हम पहुंच गए हैं जहां स्मृति पर कब्जे की लड़ाई हो रही। स्मृति का एक अलग कारखाना चलाया जा रहा है। पुरानी स्मृतियों को विस्मृत करने प्रयास किया जा रहा है। विवेक को शून्य किया जा रहा है। परम्पराओं का आधुनिकीकरण हो रहा है। अत्याधुनिक अस्पताल के उद्घाटन पर बताया जा रहा है कि प्लास्टिक सर्जरी हमारे यहाँ पहले से उपलब्ध थी। हाथी का सर काट कर मानव को लगाया जाता था। कोई सवाल नहीं करता कि इंसान का क्यों नहीं लगाया गया। संस्कृति को उद्योग बनाया जा रहा है। त्यौहार मार्किट तैयार कर रहे हैं। उपभोक्ता संस्कृति बची है। कुछ साल पहले अक्षय तृतीया आज की तरह नहीं थी। मूल्यहीन आकांक्षायें उत्पन्न की जा रहीं हैं। इसका बाज़ार अनैतिक होता है। भीड़तंत्र की संस्कृति जन्म ले रही है। सफलता की सीढ़ी चढ़ना ही एकता का सूत्र है। इंसान को जड़बुद्धि और बुद्धिहीन बनाया जा रहा है। भीड़ की संस्कृति में प्रतिरोध की चेतना नहीं होती है। बहुसंख्यकवाद की बात हो रही है। मंत्री जी जज को कहते हैं कि आप इलेक्टेड नहीं हो। पूरे सूचना तंत्र पर अधिकार किया जा रहा है। झूठ को बहुत आत्मविश्वास से बोला जा रहा है। अपने मन की बात कही जा रही है। दूसरे से प्रतिरोध का अधिकार छीना जा रहा है। आंदोलनों को कुचला जा रहा है। लोकतंत्र को तानाशाही में बदला जा रहा है। जो लोग इमरजेंसी और १९८४ के दंगों के बाद पैदा हुए  थे उनसे पूछा जा रहा है तुमने तब विरोध क्यों नहीं किया। निर्णायक मौकेपर हम खड़े हैं। खूबसूरत दुनिया के निर्माण पर विचार करना चाहिए।

सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कथाकार पंकज बिष्ट ने कहा कि महत्वपूर्ण यह है कि सत्ता ने हमारे विवेक और जीवनशैली को पकड़ा। सत्ता में काविज़ रहने के लिए ये उसके अनुकूल थीं। आज जो सत्ता में है वो इसे पुनर्स्थापित कर रहा है। भेदभाव को बनाये रखता है। नकली दुश्मन बना रहा है। आधुनिक अस्पताल का उद्घाटन होता है और कहा जाता है प्लास्टिक सर्जरी आदिकाल से चली आ रही है। सत्ता हमें अज्ञानता और पीछे की और ले जा रहे रही है। आधुनिक टेक्नोलॉजी में हम कन्ज़्यूमर बन रहे हैं। ताकि बाहर के लोग अपना ख़राब सामान हमें बेच दें। कुछ त्यौहार जो पहले एक या दो प्रदेशों में मनाये जाते थे अब पूरे भारत में मनाये जा रहे हैं। यह काम कई बरसों से हो रहा है। धार्मिक अंधविश्वास को बदलने की कोशिश नहीं की जा रही है। लेखक के सामने चुनौती है कि धर्म की व्याख्या करे। तुलसी की रामायण को नए तरीके से देखने की ज़रूरत है। रचनात्मक के अलावा भी कुछ और लिखा जाना चाहिए। अन्यथा भविष्य में सत्ता में आज बैठे लोगों को रोकना संभव नहीं होगा।


सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कथाकार गिरिराज ने कहा - आज एक मंत्री कहते हैं लिखना बंद कर देना चाहिए। लेखक का प्रतिरोध मॅन्युफैक्चर्ड है। ये लोग संस्कृति के विरुद्ध हैं। समाज को टुकड़ों-टुकड़ों में बाँट कर आगे बढ़ना चाहते हैं। मैं भी पुरुस्कार वापस करना चाहता हूं। लेकिन नहीं करूंगा। इसलिए कि नहीं चाहता कि अकादमी सिरविहीन हो जाए। आज यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन के माध्यम से विश्वविद्यालयों पर प्रशासन किया जा रहा है। जबकि ऐसा कोई प्राविधान नहीं है। जहां नियमित और सीनियर शिक्षक होना चाहिए वहां संविदा पर शिक्षक बैठाये जा रहे हैं। शिक्षक और छात्र को अपने अधिकार ही नहीं मालूम। जो कोर्स तैयार हो रहे हैं वो मानवता के विरुद्ध हैं। मकान आदि सब विदेशी तरीके से बन रहा हैं। अपनी समस्याएं अपने तरीके से क्यों नहीं बदली जा रही हैं? हमारे पास बहुत स्किल है। लेखक को दरबारी कहा जाता है। लेखक कभी दरबारी होता। बेवकूफ़ बनाया जा रहा है कि हमारी आर्थिक स्थिति मजबूत हो रही है।  रोज नए टैक्स लगाये जा रहे हैं। लेखक ने असहिष्णुता के विरुद्ध आवाज़ उठाई है तो रोज़मर्रा के मुद्दों को भी उसमें शामिल किया जाये। पीएम हमारी भी सुनें, सिर्फ अपनी ही न कहते रहें। उ.प्र. सरकार से भी शिकायत है। यश भारती और पद्म पुरुस्कार पाने वाले को पेंशन देने की बात की है उसने। यह सामंती व्यवस्था है। ऐसा करके प्रतिरोध की आवाज़ को दबाने की कोशिश हो रही है। डरने की मानसिकता को बदलना होगा। व्यक्तिगत आकांक्षाओं को रोकना होगा। अब भूख लगती है तो दूसरे तय करते हैं कि हमें क्या खाना चाहिए। अमरीकी साम्राज्यवाद से भीख मांगी जा रही है कि हमें दीजिये ताकि हम मेक इन इंडिया बनायें। स्थिति भयानक से भयानक होती जा रही है। हमें इससे लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए।


सुप्रसिद्ध लेखिका सुशीला पुरी कहती हैं - मर्दानगी दिखाने के लिए ओछा रास्ता चुना। साहित्य के मूल सरोकार वंचित समाज के इर्द-गिर्द रहे हैं। उन्हें अब हाशिये पर डाला जा रहा है। सृजन अपने समय का आईना है। आज आस्था के नाम पर कुछ भी करने की छूठ है। गाय के नाम पर राजनीति हो रही है। संस्कृति के ठेकेदार कौन हैं? सांप्रदायिकता के विरुद्ध भी लेखक-कवि खड़े हुए हैं। ये गर्व की बात है। हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है। पुरुस्कार लौटाने पर कहा जा रहा है कि यह तो सुहागरात के बाद दुल्हन लौटना है। ये वो लोग हैं जो निर्भया को कहते हैं कि प्रतिरोध न करती तो जान बच सकती थी। ऐसे लोग हैं जो एक अफ़वाह पर हत्या कर देते हैं। पीएम अपनी सुविधाजनक चुप्पी साधे बैठे हैं। केदारनाथ सिंह सही कहते हैं कि अच्छा हुआ कि बुद्ध पांच सौ साल पहले पैदा हुए। आज के दौर में होते तो उनकी वही दशा होती जो कुलबर्गी की हुई। साहित्य उन सभी चीज़ों का बहिष्कार करता है जिससे मानव जीवन खतरे में होता है। वो सब करना है जिससे यह समाज रहने लायक बने।


सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि उन्हें पुरुस्कार लौटना अच्छा नहीं लगा। इसलिये मैंने इसका विरोध किया। मेरे मुझे शंका थी कि वो अकादमी में अपने आदमी बैठा देंगे।मेरे पास भी एक पुरुस्कार है। मैंने अपना पुरुस्कार नहीं लौटाया। पुरुस्कार कैसे मिलते हैं यह मुझे भी मालूम है और आपको भी। जिसके पास लौटाने को नहीं है, वो क्या लौटाए? लेकिन मैं लौटाने वालों के साथ हूं। झूठा दिखावा न करें। सड़क पर उतरिये। मैं सड़क पर उतरी हूं। राजनीति से क्यों दूर भागे फिरते हो? आओ राजनीति की बात करें। जिस संस्कृति का विरोध किया, वही संस्कृति हावी हो रही है। महिलाओं को उठना चाहिए। करवा चौथ के दिन मुझे बहुत निराशा हुई। करवा की कहानी पढ़ो। उस नारी को कितनी तकलीफ़ हुई थी। यह समय सजने-संवरने का नहीं है। लिखिए और खूब लिखिए। सिर्फ साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए नहीं लिखें। छोटे अख़बारों और पत्रिकाओं के लिए लिखिए। मज़दूर मिस्त्री रिक्शेवाला पुरूस्कार के बारे में नहीं जानता। उनके लिए लिखें।


सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि व चिंतक अजय सिंह ने कहा - ऐसी मानसिकता विकसित की जा रही है कि अरुंधति के नक्सलियों के साथ संबंध थे.एक औरत के साथ चार लोग बलात्कार कैसे कर सकते हैं.बलात्कार पर नेता जी कहते हैं, लड़कों से गलती हो जाती है।  मुस्लिम औरतें रामकथा सुनाते-सुनाते भावुक हो गयीं। लेकिन कुप्रचार किया गया कि हिंदू धर्म का अपमान हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि हिंदू धर्म एक जीवन पद्धति है। इससे दूसरे धर्मों का स्पेस कम होता है। नामवर सिंह कहते हैं कि पुरुस्कार लौटने वाले सुर्खियां बटोरने के लिए ऐसा कर रहे हैं। वो किस प्रकार की संस्कृति विकसित कर रहे हैं? विविधतापूर्ण संस्कृति  बचाने का स्वागत होना चाहिए।

सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लेखक रवींद्र वर्मा कहते हैं कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। हमारी संस्कृति में भिन्नताओं का सामंजस्य रहा है। बाबरी मस्जिद का विध्वंस और नव-उदारवाद का सगी बहनों जैसा संबंध है। हिंदू राष्ट्रवाद के लिए उग्र धार्मिक राष्ट्रवाद कहना ज्यादा ठीक है। बहुलतावादी संस्कृति के देश पर उग्र धार्मिक राष्ट्रवाद थोपा जा रहा है। यह संकट बहुत गहरा है, इमरजेंसी से भी ज्यादा। यह संस्कृति और समाज को तोड़ेगा। अवार्ड वापस लौटाने से नहीं बल्कि नहीं लौटने से समाज कमजोर होगा होगा। सांप्रदायिकता के विरुद्ध तो लेखक-कवि लड़ ही रहा है। लेखक को वर्गगत सोच से बाहर आना होगा।

सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लेखक डॉ मुरली मनोहर प्रसाद सिंह कहते हैं कि इतिहास एक ऐसी मज़िल पर है जो पहले से भिन्न है। मुस्लिम-ईसाई आदि सभी अल्प-संख्यक और दलितों की हत्या की जा रही है। दमन हो रहा है। मंत्री उसकी हत्या को कुत्ते को पत्थर मारने से करते हैं। कहा जाता है की लेखक लिखना बंद कर दे, क्या फर्क पड़ता है? सिर्फ़ ईनाम लौटना बड़ी बात नहीं है। नहीं लौटाने वाले भी प्रतिरोध करते हैं। अमेरिकी साम्राज्यवाद के समक्ष भिक्षा पात्र लेकर खड़े हैं। तानाशाही है आज। लेखकों, कलाकारों, इतिहासकारों, वैज्ञानिकों के विरुद्ध बयान जारी किये जा रहे हैं। इसे छिटपुट और संकीर्ण नज़रिये से नहीं देखिये। जो मर गए थे, वो मारे गए हैं। उन्हें बार-बार धमकाया ज चुका था। ऐसा वक़्त आ गया है कि नज़र उठाना मुश्किल है। गर्दन झुका कर चलना पड़ रहा है। निर्णायक संघर्ष का दौर है। यह साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ाई है।
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