Tuesday, November 3, 2015

स्टेशन के सामने रहना, नफ़ा कम नुक्सान ज्यादा।

-वीर विनोद छाबड़ा
आप रेलवे स्टेशन के सामने या आजू-बाजू रहते हैं। मुबारक़ हो। हम तो २२ साल रहे हैं। रेलवे स्टेशन के सामने मल्टी स्टोरी बिल्डिंग में। बचपन से जवानी तक के बेहतरीन साल।

हमारी ख़ुशक़िस्मती का आलम यह रहा कि सामने उत्तर रेलवे और दायें बाजू छोटी लाईन अर्थात पूर्वोत्तर रेलवे और खिड़की से साफ़ साफ़ दिखता उसका क्लॉक टॉवर। जब तक हम वहां रहे, रिस्ट वाच या टेबुल क्लॉक की हमें ज़रूरत नहीं पड़ी।
सोने पे सुहागा यह कि दस कदम आगे और चले नहीं कि राजकीय बस अड्डा। कानपुर, गोरखपुर, वाराणसी और हरदोई-मुरादाबाद-सीतापुर की तरफ़ कहीं भी जाना हो बसें हर वक़्त हाज़िर। इसके अलावा भी सुविधायें। सामने ही सिटी बस अड्डा। घर से निकले नहीं कि रिक्शा-तांगा भी हाज़िर। कभी इंतज़ार नहीं करना पड़ा।
हमने तो बरसों मॉर्निंग वॉक की है रेलवे प्लेटफॉर्मों पर। सुबह-सुबह मुंह उठाया और चल दिए। एक नंबर प्लेटफॉर्म के पार्सल ऑफिस से शुरू हुए और गदहा लाईन के आख़िरी छोर तक। और फिर रिटर्न बैक। यह क़वायद तीन-चार बार होती। हम लोग इसे मॉर्निंग वॉक नहीं, शंटिंग बोलते थे।
रेल हमारी नस-नस में थी, उन दिनों। हज़रतगंज में टहलना आम आदमी के लिए गंजिंग थी लेकिन हमारे लिए शंटिंग।
हम तिमंजिले पर रहा करते थे। दोनों स्टेशनों का नज़ारा साफ़ साफ़ दिखता था। स्टेशन से निकलती भीड़ देख कर बता देते थे कि गंगा-जमुना है या पंजाब मेल या गोंडा-गोरखपुर एक्सप्रेस। कहीं जाना होता था तो पंद्रह मिनट पहले निकलते। पांच मिनट नहीं लगते थे कि प्लेटफॉर्म पर हाज़िर।
मगर स्टेशन के सामने रहने के नुकसान भी कम नहीं थे। मुसीबत ही मुसीबत।
रात-बेरात खट-खट हुई। दरवाज़ा खोला। धक्का देते हुए आधा दर्जन बच्चों के साथ धड़धड़ा कर अंदर। ट्रेन चार घंटा लेट है। इतनी दूर चौक लौट कर कहां जायें। सोचा यहां आप ही के घर विश्राम कर लिया जाए। हाय हाय चार बज गया है। थोड़ा सो लिया जाए..... ट्रेन रात दो बजे छूटनी है। इतनी रात गए नक्खास से रिक्शा-तांगा कहां मिलता है बहनजी। मिल भी जाए तो ख़तरा कौन मोल ले? छोटे छोटे बच्चे हैं। इसलिए अभी आ गए.ट्रेन लेट आई है। इस ठंड में इतनी दूर महानगर कौन जाये? बच्चे साथ न होते तो चले जाते।

बहुत नज़दीकी वाले तो डिनर पर भी हाथ साफ़ करने से भी नहीं हिचके कभी । अन्यथा मेहमान का दर्जा हासिल है, चाय-पानी पूछना तो बनता ही था। याद नहीं है कि मैंने किसी को इंकार करते हुए कभी देखा। 
घर न हुआ रेलवे का विश्रामगृह हो गया। कई बार तो ऐसा हुआ कि हम छत पर सोने चले गए या बरामदे में ज़मीन पर दरी बिछा कर लेट गए। नींद तो कोसों दूर रही। करवटें बदलते रहे। यह जीवन है इस जीवन का यही है रंग रूप.… 
ऐसे-ऐसे मेहमानों का आना हुआ जिनसे दूर-दराज़ का रिश्ता रहा। कई बार तो रिश्तेदारों के पड़ोसी आ धमके। कई लोग तो पिताजी से सिफ़ारिश लगवाने आते थे - आप रेलवे में हैं और फिर स्टेशन के सामने भी। बड़ी वाक़फ़ियत भी होगी। माता का बुलावा आया है। जम्मू का रिजर्वेशन चाहिए।
मुझे याद है जब तक हम स्टेशन के सामने रहे हमारी मित्र सूची अनावश्यक रूप से बहुत लंबी रही।
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