- वीर विनोद छाबड़ा
मेरे ख्याल से आज के मैन ऑफ़ मैच लालू प्रसाद यादव हैं।
यह लालू ही थे जिन्होंने कहा था कि महागठबंधन को १९० सीट मिलेंगी।
क्या किसी ने लालू जी को गंभीरता से लिया था? शायद किसी घनघोर भक्त ने भी नहीं। हो सकता है कि परिवार में
भी उनको भाव नहीं मिला हो। मीडिया और जनता में पूरे दो दिन तक वो मज़ाक का पात्र बने
रहे।
बहरहाल, हालांकि लालू का गठबंधन वो आंकड़ा छू नहीं पाया लेकिन १७८ का आंकड़ा कम नहीं है।
खास तौर पर इसलिये कि उनकी पार्टी को जिताने की भविष्वाणी करने वाले एग्जिट पोल ने
भी उन्हें सुनहरे से सुनहरे सपने में भी १५० से ज्यादा सीटें नहीं दी हों।
आंकड़ों की दृष्टि से भी लालू जी की आरजेडी नितीश जी की जेडीयू
और मोदी जी की बीजेपी से आगे रही।
ये वही लालू हैं जिन्होंने १९९० में बिहार में अडवाणी जी की
रथ यात्रा रोकी थी और अब मोदी जी को बिहार में रोका है।
सांप्रदायिकता के विरुद्ध लालू जी की प्रतिबद्धता खुद को सांप्रदायिकता
की चैंपियन मानने वाली कांग्रेस से कहीं ज्यादा है। आड़े वक़्त में कांग्रेस का हमेशा
साथ दिया है, भले कांग्रेस के राहुल को उनसे हाथ मिलाने में शर्म आती रही।
सत्ता की लड़ाई में समधी मुलायम सिंह यादव को भी तरजीह नहीं दी।
बदले में मुलायम सिंह यादव ने सारी सीटों पर अपने कैंडिडेट उतार कर उन्हें हराने की
कोशिश की। लेकिन बाल भी बांका न हो सका लालू का।
लालू जी पर भले ही चारा घोटाले का संगीन चार्ज हो, लेकिन एक बात है कि
कुछ खास तो है ही कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। उनकी ख़ासियत है कि वो जैसे दिखते हैं, हैं भी वैसे ही, व्यवहार और भाषा से
ठेठ गवईं। विचित्र व्यक्तित्व है उनका। हर समस्या का सहज चुटकियों में हल लीजिये। किसी
से परमानेंट दुश्मनी भी नहीं।
एक बार प्रसिद्ध निर्देशक और एक्टर सतीश कौशिक से किसी से पूछा
था - आपने ज़िंदगी में जो चाहा सब पा लिया है। आपके दिल में कोई इच्छा बाकी है।
सतीश ने जवाब दिया था - हां, मैं एक बार लालू प्रसाद यादव का करैक्टर करना चाहूंगा।
लालू की नक़ल उतार कर न जाने कितने लोग कॉमेडियन बन गए हैं। बिना
उनकी नक़ल किये कोई कॉमेडी पूर्ण नहीं हो सकती। लालू का मज़ाक उड़ते देख न जाने कितने
लोगों के होंठों पे मुस्कान आई है। लोकसभा में न जाने कितनी बार सांसदों के पेट में
हंसते हंसते बल पड़े हैं। उन्हें मसख़रा कहा जाता है। चार्ली चैपलिन के लिए भी यही कहा
गया था।
जीत भी आख़िर में मसख़रे की ही होती है। पॉलिटिक्स में भी यही
होता है। मसखरों का मंच। और फिर जो जीता वही सिकंदर।
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किसी ने सच ही कहा हैं... जब तक रहेगा समोसे में आलू जब तक रहेगा बिहार में लालू... तो इस तरह बिहार कि राजनीती में से लालू कर निशान मिटाना लगभग नामुमकिन हैं...
ReplyDeleteसटीक विश्लेषण।
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