Monday, November 2, 2015

यह धुआं धुआं सा क्यों है मेरे भाई?

-वीर विनोद छाबड़ा
पड़ोसी बहुत सफ़ाई पसंद हैं। रोज़ की रोज़ सफ़ाई। और कूड़ा फूंक दिया घर के सामने ही। बहुत समझाया कि प्रदूषण का ख्याल रखो। सफाई कर्मी रखो। मगर कभी कान पर जूं न रेंगी। मनमानी करेंगे शान से। दुनिया जूते
की नोक पर।
बंदा ठहरा अस्थमा का मरीज़। अन्य नाना प्रकार की व्याधियों से भी पीड़ित। खुद को घर में क़ैद कर रखा है। यह सब सिगरेट की देन है। तीस साल बाद होश तब आया जब सिगरेट ने उसे पीना शुरू किया। शुक्र है सीधी-साधी पत्नी ने समय रहते आतंकी स्वरूप धर लिया, वरना तस्वीर बन कर टंगा होता दीवार पर।  
बहरहाल, बंदे की पत्नी पड़ोसी के कूड़ा जलाओ अभियान के विरुद्ध जब-तब मोर्चा लेती रहती है। लेकिन सब बेअसर। उलटा मोहल्ला भर टैक्स-फ्री मनोरंजन का लुत्फ़ उठाता है। थक-हार कर बंदा सुबह अपने खिड़की-दरवाज़े बंद रखता है।
मगर आज रस्म भी और रिवाज़ भी। दीवाली का मौका है। पड़ोसी ने सुबह-सुबह साल भर का जमा कूड़ा निकाला। लाॅन-आंगन की सूखी घास, रद्दी काग़ज, प्लास्टिक का टूटा-फूटा सामान, घिसा-फटा साईकिल का टायर, ऐतिहासिक फर्नीचर के अवशेष, फटे-पुराने जूते इसमें शामिल थे। आदतन फूंक दिया, वहीं घर के सामने। नतीजा- भयंकर बदबूदार और रसायनी धुआं ही धुआं। घुस गया दर्जन भर घरों में।
बंदे का घर भी नहीं बचा। बंद खिड़की-दरवाजों की महीन दरारों की मार्फ़त फैल गया। अस्थमा का अटैक पड़ गया। बेतरह खांसी और सांस लेने में दिक्कत।
आतंक की पर्याय पत्नी को मानो टेलर मेड पिच मिल गयी। पड़ोसी को चुनींदा असंसदीय शब्दों के बाणों से बेतरह बींध दिया। आस-पास के सताए लोग भी हौंसला-अफ़ज़ाई को आ जुटे।
बंदे की तबियत ख़राब की ख़बर से पड़ोसी बैकफुट पर दिखा। किसी भी बाण का जवाब नही दे पाया। पुलिस में रपट होने की बात सुनी तो कांप गया। हे भगवान! लड़की छेड़ने के इल्ज़ाम में बरसों पहले हुई पिटाई याद आ गयी। पूरे पांच हज़ार देकर छूटा था। 
इधर बंदे की तबियत नियंत्रण से बाहर हो गयी। डॉक्टर की प्रेसक्राइब्ड दवायें भी बेअसर। पत्नी ने झगड़े पर क्रमशः लगाया। आजू-बाजू वालों की मदद से अस्पताल लेकर भागी। बंदे को आक्सीजन लगाई गयी। तमाम ज़रूरी इंजेक्शन भी ठुके। 
इस दौरान शर्मिंदा पड़ोसी अपनी गाड़ी व परिवार सहित बंदे की खिदमत में जुटा रहा। कान पकड़ कर बार-बार माफ़ी मांगी - भाभी जी, हमका माफ़ी दे दो। आइंदा ऐसी भूल नहीं होगी। बस कोर्ट-कचेहरी न करो। सरकारी मुलाज़िम हूं। नौकरी चली जायेगी।
 
तभी बंदे को होश आया। अभी आंखों के सामने धुंधलका है। उसने पूछा - यहां धुआं धुआं सा क्यों है मेरे भाई?
पड़ोसी ने बंदे का हाथ थामा - नहीं दोस्त, धुआं अब छंट गया है। 
पड़ोसी वादा कर रहा है कि इस बार दीवाली पर वो पटाखे नहीं छोड़ेगा। दूसरों से कहेगा कि घर के सामने कूड़ा जलाना वीरता नहीं है। धुएं से किसी सांस रोगी की ज़िंदगी खतरे में पड़ सकती है।
बंदे को पुरानी हिंदी फ़िल्में याद आ रही हैं। खलनायक हृदय परिवर्तन पर कहता था - मेरी आंखें खुल गयीं हैं।   
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प्रभात ख़बर में प्रकाशित।
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Lucknow - 226016 

2 comments:

  1. सुन्दर रोचक प्रस्तुति. मज़ा आ गया.

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