- वीर विनोद छाबड़ा
आज इंदिराजी का जन्मदिन है। हमने इंदिराजी को कई बार देखा है
बहैसियत इंदिराजी और प्रधानमंत्री के तौर पर भी। लेकिन तीन यादें ऐसी हैं जो आज भी
ज़हन में ताज़ा हैं। उन्हीं में से एक याद शेयर है।
१९६२ का चीन युद्ध ख़त्म हो चुका था। लेकिन इसके बावज़ूद नार्थ-ईस्ट
से फ़ौजियों आमद-रफ़्त बहुत तेज़ थी। इसका अंदाज़ा लखनऊ जंक्शन रेलवे स्टेशन पर हम रोज़
देखा करते थे। फ़ौजियों की फौरी तौर पर थकान मिटाने की गर्ज़ से लखनऊ जंक्शन रेलवे स्टेशन
पर फरवरी-मार्च १९६३ में एक चाय-काफ़ी कैंटीन खोली गयी, बिलकुल मुफ़्त।
उसका उद्घाटन इंदिराजी ने किया था। तब हम लगभग १२ साल के थे।
हमने सुना नेहरूजी की बेटी आ रही हैं। तब हम स्टेशन के बहुत
करीब मल्टी स्टोरी कॉलोनी में रहते थे। पिताजी हम तीनों भाई-बहन को स्टेशन ले गए। कोई
पब्लिसिटी या शोर-शराबा नहीं। थोड़ी भीड़ थी, लेकिन बिलकुल शांत,
कोई थक्का-मुक्की नहीं। सिक्योरिटी का भी कोई ख़ास इंतेज़ाम नहीं। बस दो सिपाही मौजूद
थे। हम लोग कैंटीन से चंद कदम दूर ए.एच.व्हीलर के बुक स्टॉल पर जम गए।
थोड़े इंतेज़ार के बाद इंदिराजी आईं। दो-तीन लोग उनके साथ थे।
कोई ताली नहीं। कोई नारा नहीं। बिलकुल छरहरे बदन की इंदिरा जी। ऊंचा कद। सुर्ख चेहरा।
ओज से भरपूर। हमारी तो आंखें चौंधिया गई।
हमें याद नहीं कि कांग्रेस में उनकी क्या हैसियत थी। लेकिन हमारे
लिए वो चाचा नेहरू की बेटी थीं। हमारे बहुत करीब से गुज़री थीं। इतने करीब से कि उनको
आसानी से छू सकते थे।
इंदिराजी ने फीता काटा। तालियां बजी। कोई नारे बाज़ी नहीं हुई।
उद्घाटन के बाद वो दिल खोल कर मुस्कुराईं थीं, तस्वीर के लिए। दो-तीन
फ़्लैश चमके। इंदिराजी चाय/काफ़ी की चुस्कियां लीं और इस दौरान वो फौजियों से गुफ्तगू
में मशगूल रहीं। कोई आधा घंटा रही वो वहां। हम अपलक उन्हें मंत्रमुग्ध देखते रहे।
वापसी पर इंदिराजी फिर हमारे करीब से जैसे ही गुज़री,
हम भाई-बहनों ने जोर-जोर से ताली बजाई। इंदिराजी ठिठकीं। हम लोगों की ओर देखा।
पहले मुस्कुराईं और फिर हंस दीं। फिर बारी से हम तीनों के गालों को छुआ। फिर वो चल
दीं। हम लोगों ने फिर तालियां बजानी शुरू कर दीं। देखा देखी औरों ने भी ताली बजाई।
इंदिराजी कुछ कदम दूर तक हमारी ओर देखती रहीं। फिर वो मुड़ीं और ओझल हो गयीं।
हम भाई-बहन उछलते-कूदते घर लौटे थे। जैसे कोई मैदान मार लिया
हो। नेहरूजी की बेटी ने हमें प्यार किया था। हमें याद है कि तीन-चार दिन तक हम नहाये
ज़रूर मगर मुंह नहीं धोया था।
५२ साल हो चुके हैं। उस स्पर्श की अनुभूति ज़हन में आज भी ताज़ा
है।
नोट - पुरानी परिमार्जित पोस्ट।
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