Monday, April 10, 2017

दुनिया न माने

-वीर विनोद छाबड़ा
व्ही शांताराम ने 1937 में एक फिल्म बनाई थी - दुनिया न माने। शायद यह लीक से हट कर बनी पहली फ़िल्म थी। इस फिल्म ने शांताराम को ही नहीं मराठी सिनेमा को भी विश्व पटल पर विशेष दर्जा दिलाया था।
Shanta Apte
मूलतः यह फिल्म मराठी में 'कुंकु' और हिंदी में 'दुनिया न माने' के नाम से साथ साथ बनी थीं। इस फ़िल्म ने न सिर्फ भारतीयों के मानस पटल को झकझोरा था वरन बॉक्स ऑफिस पर भी तहलका मचाया था। यही कारण था कि ये वेनिस फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाई गयी।
नारायण हरि आप्टे के मराठी नॉवल 'ना पटणारी गोष्त' पर आधारित इस फ़िल्म की कथा यों है। अनाथ निर्मला (शांता आप्टे) को उसके चाचा-चाची ने पाल-पोस कर बड़ा किया है। गुणी निर्मला बड़े सपने देखती थी। उसका ख्याल रखने वाला सुंदर सा दूल्हा होगा और उसे ढेर प्यार देगा। लेकिन चाचा-चाची ने पैसों की लालच में उसका ब्याह 67 साल के विधुर काकासाहेब (केशवराव दाते) से रचा दिया। इस सच का पता उसे तब चला जब वो ससुराल की देहरी पर कदम रखती है। निर्मला डर जाती है। छल किया गया उससे। एक पिता तुल्य व्यक्ति उसका पति कैसे हो सकता है। चाचा-चाची ने उसे धोखे में रख कर घृणित काम किया है। उसने कृतघ्न पति को अपना बदन छूने नहीं दिया।
V.Shantaram
पति काकासाहेब कुछ नहीं कर सके। वो किंकर्तव्यविमूढ़ थे। ठगे रह गए। वो समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। उन्हें भी नहीं मालूम था कि निर्मला के साथ धोखा हुआ है।
इधर निर्मला फैसला करती है कि वो इस नर्क से निकल कर रहेगी। घर में उसका सामना सौतेले बेटे से होता है जो उस पर बुरी नज़र रखता है। वो उसे झिड़क कर अपनी मजबूती का अहसास कराती है। पति की चाची है जो हर समय उसे पत्नी के कर्तव्य का पालन करने का उपदेश देती है। एक सौतेली बेटी है जो विधवा है, लेकिन समाज सुधारक है। वो उसकी हमदर्द बनती है।

एक दिन काकासाहेब को अपनी भूल का अहसास होता है कि उन्होंने एक युवा लड़की के सपनों को कुचला है। वो उसके लायक नहीं हैं। उनका विवाह बेमेल है। उन्हें कोई हक़ नहीं है जवान निर्मला को क़ैद में रखने का। इसका एक ही उपाय उन्हें सूझता है। वो आत्महत्या कर लेते हैं। लेकिन इससे पूर्व वो निर्मला को माथे पर लगी कुमकुम हटाने की सलाह देते हैं। एक पत्र भी निर्मला के नाम लिखते हैं जिसमें वो उसे बेटी संबोधित करते हुए सलाह देते हैं कि वो अपनी मर्जी से विवाह करने को स्वंत्रत है।
तीस के दशक में ऐसे विचार की कल्पना करना भी घृणित काम था। लेखक नारायण हरि आप्टे को बहुत अपमान भरे शब्द सुनने पड़े। शांताराम जब इस पर फिल्म बनाने लगे तो उन्हें शुभचिंतकों ने समझाया, समाज के ठेकेदारों ने धमकाया। उन पर दबाव डाला गया कि फिल्म के अंत में पति-पत्नी के मध्य समझौता दिखा दो कि जो हो गया सो हो गया। लेकिन न नारायण हरि माने और न शांताराम। फिल्म बनी और खूब चली।
इसकी विशेषता यह भी थी कि संगीतमय गाने तो थे, लेकिन बैकग्राउंड म्युज़िक नहीं था। ध्वनियां ज़रूर थीं। जैसे चारपाई का खिसकाना, बर्तन का गिरना आदि।

इसके बाद भी शांताराम रुके नहीं और एक विद्रोही की भांति रीति-रिवाज़ो और परंपराओं को तोड़ने वाली पाथ-ब्रेकिंग फ़िल्में बनाते रहे। 
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1 comment:

  1. बहुत ही लाजवाब, स्त्री अधिकार पर केंद्रित

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