-वीर विनोद छाबड़ा
हमारा परिवार १९४७ के पार्टीशन के फलस्वरूप पाकिस्तान से भारत आ कर बसा। पहले बनारस
और फिर लखनऊ के नक्खास, चंदर नगर के मोहल्लों में।
Arhar Dal |
लौकी डाल कर चने की दाल। मूंग की दाल में बारीक़ प्याज़ मिलाना। उड़द और मसूर की दाल।
राजमां, काबुली चना और छोले। कभी-कभी चावल। यही था आहार। कभी अरहर की दाल का नाम नहीं सुना
था। और न कभी किसी पार्टी में खायी। नक्खास में चार बरस की रिहाईश छोड़ कर इस दौरान
ज्यादातर पंजाबियों के साथ रहना हुआ।
१९६२ में जब हम चारबाग़ शिफ़्ट हुए। आस-पास सब यूपी के मूल बाशिंदे। हिंदी भाषी।
हमारे पड़ोस में अगले दरवाज़े राजवत फैमिली रहती थी। उनके घर में अरहर की दाल तक़रीबन
रोज़ बनती थी। भीनी-भीनी खुशबू हमारे घर भी पहुंच जाती। एक दिन मां ने पूछ ही लिया।
अगले दिन एक बड़ी कटोरी भर छौंक लगी अरहर की दाल आ गयी। उस पर देसी घी भी तैर रहा था।
जाने कैसा हो स्वाद? डरते-डरते मुंह में एक चम्मच दाल डाली। अब क्या बताऊं? वो दिन है और आज का
दिन। हम अरहर की दाल के बिना नहीं रह सकते। बाद में पता चला कि गरीब लोग इसे बहुत पसंद
करते हैं। गरीबों की दाल कहते थे इसे हमारी बिरादरी वाले। बिरादरी का कोई बंदा आता
था उसे नहीं परोसते थे। कहीं वो हमारा स्टेटस डाऊन न समझे। और अपनी नाक कटी न समझ ले।
लेकिन कुछ ही अरसे बाद हमने देखा कि अरहर ने हमारी बिरादरी में भी नंबर-वन की जगह
ले ली है। राजमां दस-पंद्रह दिन में एक बार और अरहर हफ़्ते में तीन-चार बार। सस्ती भी
और जल्दी भी बनती थी। चावल के साथ तो बहुत ही भाती। लम्बे अरसे तक हमने सोलर कुकर में
बनी अरहर खूब खाई। लाज़वाब स्वाद। अब आस-पास ऊंचीं इमारतें बन गयीं हैं। भरपूर धूप के
लिए तिमंजिले कौन चढ़े?
इधर पिछले कई दिनों से अरहर का नंबर हफ़्ते में एक बार लग रहा है। मूंग और चने की
दाल, और बाकी सस्ती-मद्दी दालों के फेरे बढ़ रहे हैं। पत्नी कहती है, १५० रूपए किलो है।
डॉक्टर ने तो कहा नहीं कि खाओ।
अभी कल ही अरहर का नंबर आया था। इतनी पतली कि गोता लगाना पड़ा। होटलों और ढाबों
में खाने के दिन याद आ गए।
उस दिन एक मित्र मिले। सलाह दी कि खानी बंद कर दो। भाव खुद-ब-खुद गिर जाएंगे?
क्या-क्या बंद करें यारो? कल को कहोगे जीना बंद कर दो। कुछ तो खाओगे ही। उसी के दाम बढ़ जाएंगे। प्याज खाना
कम किया। कहां गिरे दाम? सालों से देसी घी सूंघ कर गुज़ारा करते हैं। दाम तो बढ़ते ही गए। कई लोगों की थाली
में अरहर कटोरी यदा-कदा नज़र आती है। कम हुए दाम?
सरकार कहती है, महंगाई कम हुई है। मगर बैंक के बचत खाते में रक़म जमा जा ही नहीं पा रही है। जब
अरहर ७० रूपए किलो थी तो १० परसेंट डीए बढ़ता था। अब १५० है तो महज छह फ़ीसदी डीए बढ़ोतरी
हुई। कैसे करें महंगाई से मुक़ाबला? पांच साल हो गये पैंट-शर्ट लेने का प्रोग्राम मुल्तवी करते। फटी बनियाइन को भी
इस महीने फिर सेवा विस्तार दिया है।
कौतुहलवश फुटपाथ पर भोजन बनाते हुए एक मजदूर से पूछा तो वो बोला - साहेब हम तो
चावल खाने वाले आदमी। पहले मुट्ठी भर अरहर डालते थे, अब चुटकी भर। शुक्र
है कि मिल रही है। जब नहीं मिलेगी तो देखा जायेगा। सरकारों ने तो निवाला छीनने का काम
किया है, देने का नहीं।
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01-10-2015 mob 7505663626
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