-वीर विनोद छाबड़ा
आज आवाज़ की दुनिया के एक बादशाह दिवंगत
मुकेश माथुर का जन्मदिन है।
मुकेश का फिल्मों में आना दिलचस्प किस्सा
है। मुकेश अपनी बहन की शादी में सहगल की नकल करते हुए गाना गा रहे थे। दूर के रिश्तेदार
मोतीलाल उसी समारोह में मौजूद थे। उन्होंने
उस आवाज़ को सुना। वो दंग दंग रह गए। इतनी परफेक्ट नक़ल! यह ज़रूर बड़ा सिंगर बनेगा।
मोतीलाल बड़े एक्टर थे। वो उन्हें बंबई ले आये। पंडित जगन्नाथ प्रसाद से उन्हें गीत
संगीत में प्रवीण कराया। यह ४० के दशक की शुरुआत थी। उन दिनों सिंगर का एक्टर होना
या एक्टर का सिंगर होना ज़रूरी था। लिहाज़ा मुकेश का फ़िल्मी सफ़र एक्टिंग से शुरू हुआ।
उनकी पहली फ़िल्म थी निर्दोष (१९४१).
उन दिनों कुंदन लाल सहगल की सेहत अच्छी
नहीं चल रही थी। गायन और संगीत के क्षेत्र में असमंजस्य का माहौल था। सहगल की जगह कौन
लेगा? क्या दूसरा सहगल पैदा होगा?
ऐसे ही फ़िक्रमंद माहौल में संगीतकार
अनिल विश्वास मुकेश को ले आये- बोले यह है हीरा।
मुकेश ने पूरे विश्वास से और दिल की
गहराईयों से गाया - दिल जलता है तो जलने दो....(पहली नज़र-१९४५).
जिसने सुना उसे लगा वाकई सहगल का विकल्प
मिल गया है। सहगल जैसा ही दर्द है। दिल की गहराइयों से गाया है।
यह एक इत्तिफ़ाक़ है कि यह गाना मुकेश
को दिल्ली से लाये मोतीलाल पर फिल्माया गया।
बहरहाल, मुकेश की असल परीक्षा
बाकी थी। यह गाना सहगल साहब को सुनाया गया। सहगल ने बड़े ध्यान से पूरा गाना सुना और
फिर पूछा - मैंने कब गाया यह गाना?
लेकिन मुकेश की नज़र में सहगल तो सहगल
ही थे। वो नहीं चाहते थे कि दुनिया उनको सहगल की नक़ल या क्लोन के रूप में याद करे।
उन्होंने रियाज पे रियाज किये। दिन रात
एक कर दिया। ताकि सहगल से अलग एक मुक़ाम बना सकें।
इस बीच सहगल साहब दिवंगत हो गए। मुकेश
के लिए मैदान खाली था। मगर मुकेश ने कभी दावा नहीं किया कि सहगल के जाने से खाली हुए
'बड़े शून्य' को वो भर देंगे।
मुकेश ने सहगल से अलग अपनी दुनिया बसायी।
इसमें उनका साथ दिया नौशाद ने। उन्हें तराशा। मेला और अंदाज़ में मौका दिया। यहां से
मुकेश ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। मुकेश की अपनी पहचान बनी। लेकिन फिर भी बरसों तक खास-ओ-आम
मुकेश को सहगल की शैडो से बाहर देखना गवारा नहीं कर पाया। दरअसल सहगल जैसा दर्द सिर्फ़
मुकेश के स्वर में ही झलकता था।
मेला और अंदाज़ में में दिलीप कुमार की
आवाज़ बने मुकेश। दिलीप को मुकेश इतना भाये कि वो चाहने लगे कि वो उनकी स्थाई आवाज़ बन
जायें। लेकिन इस बीच राजकपूर ने मुकेश को अपनी आवाज़ बना लिया।
मैंने जब साठ के दशक में होश संभाला
था तो सहगल नहीं थे। मुकेश को ही पाया। ये तो आगे चल कर पता चला कि उनके सीने में भी
सहगल जैसा दर्द था, जिसे मैं उनके गले से निकलते स्वर से महसूस करता रहा।
मुकेश की ज़िंदगी में बेहतरीन लम्हा आया।
उन्हें 'रजनीगंधा' में गाये गीत 'कई बार यूं ही देखा है.…' के लिए बेस्ट सिंगर का
नेशनल अवार्ड मिला।
उन्हें चार बार बेस्ट सिंगर का फिल्मफेयर
अवार्ड मिला - सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी(अनाड़ी)…सबसे बड़ा नादान वही है
जो समझे नादान मुझे(पहचान)…न इज़्ज़त की चिंता न फ़िक्र कोई ईमान की, जय बोलो बेईमान की(बेईमान)…कभी कभी मेरे दिल में
ख़्याल आता है(कभी-कभी).
होटों पे सच्चाई रहती है.…दोस्त दोस्त न रहा.…सावन का महीना पवन करे
सोर....बस यही अपराध हर बार करता हूं आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं.…इक प्यार का नगमा है.…मैं न भूलूंगा इन कसमों
इन वादों को....इक दिन बिक जायेगा तू माटी के मोल.…मैं पल दो पल का शायर
हूं.…चंचल शीतल निर्मल कोमल…यह वो गाने हैं जिनके
लिये मुकेश को फिल्मफेयर ने बेस्ट सिंगर की लिए नॉमिनेट किया गया।
मुकेश जी सैकड़ों यादगार गीत गाये हैं।
मुझे तो हर गाना अवार्ड योग्य लगता है।
२७ अगस्त १९७६ को मुकेश जी ह्रदय गति
रुकने से देहांत हो गया। उस दिन वो एक कार्यक्रम के सिलसिले में अमेरिका में स्टेज
पर थे। वो सिर्फ़ ५३ साल के थे। उनकी मृत्यु पर राजकपूर ने कहा था - मेरी तो आवाज़ ही
चली गयी।
मुकेश जी ने आख़िरी गाना राजकपूर की 'सत्यम शिवम सुंदरम' के लिए रिकॉर्ड कराया
था - चंचल शीतल निर्मल कोमल…
मुकेश चंद माथुर का जन्म २२ जुलाई १९२३
को दिल्ली में हुआ था।
-----
२२-०७-२०१५
No comments:
Post a Comment