-वीर विनोद छाबड़ा
मैं लखनऊ के विद्यांत कॉलेज का १९६३
से १९६९ तक छात्र रहा हूं। इंटरमीडिएट तक पढ़ा।
जब भी इसके सामने से गुज़रता हूं तो स्कूटर
में खुद-ब-खुद ब्रेक लग जाती है। कुछ क्षण के लिए रुक जाता हूं। उन क्षणों में यों
तो उस दौर की कई घटनायें याद आती हैं। लेकिन हिंदी के अध्यापक श्री गिरिजा प्रसाद श्रीवास्तव
खासतौर पर मेरी यादों को कुरेदते हैं। उन्होंने मेरे दिल पर अमिट छाप ही नहीं छोड़ी, अपितु जीवन की धारा को
सही दिशा देने में भी अहम किरदार अदा किया है।
उन्हें प्यार से हम छात्र लोग 'गन्नू बाबू' पुकारते थे। बल्कि असली
नाम तो कइयों को मालूम ही नहीं था। उनके साथ अध्यापन करने वाले भी उन्हें इसी नाम से
पुकारते थे। वो कतई बुरा भी नहीं मानते थे।
दुबली-पतली क्षीण काया और छोटा कद। निहायत
ही मृदुभाषी व शरीफ़। गुस्से और छड़ी से उनका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं था। साहित्य
की भी बहुत अच्छी जानकारी रही उन्हें। इंटर में उन्होंने मुझे हिंदी पढाई। विद्यालय
के हिंदी संबंधी कार्य में उनसे राय लेना ज़रूरी माना गया।
मैथ व साइंस पढ़ने वाले छात्रों ने उनका
सदैव मज़ाक उड़ाया - ऐसी कद काठी और स्वभाव का
आदमी हिंदी ही पढ़ा सकता है।
जब कभी आंधी-तूफान के साथ जोरदार बारिश
हुई तो उनकी क्षीण काया के दृष्टिगत छात्रगण चिंतित हो जाते - ज़रा देखो गन्नू बाबू
अपनी जगह पर हैं?… आंधी में कहीं उड़ तो नहीं गये?…भैया ज़रा थामे रहना, बारिश में कहीं बह न
जायें!
एक बार तो वो छात्रों के पीछे ही खड़े
थे। छोटे कद के कारण कोई उन्हें देख नहीं पाया था। उन्होंने सब सुन लिया। हंस दिए
- अरे तुम जैसे बड़े-बड़े बहादुर बेटों के होते हुए कोई आंधी-तूफ़ान मेरा कुछ नहीं बिगाड़
सकता।
सब बहुत शर्मिंदा हुए थे।
उन दिनों स्वतंत्र भारत में 'संपादक के नाम पत्र' स्तंभ में मेरे पत्र
प्रकाशित होते रहते थे। गन्नू बाबू उन्हें पढ़ते थे और पीठ थपथपाते थे। हौंसला बढ़ाते
हुए कोई टॉपिक सुझा देते कि इस पर भी लिखो। बहुत अच्छा लगता था। बल्कि यह कहूं मेरे
पहले पाठक और प्रशंसक वही थे।
मैं कहानियां भी लिखता था। पर कहीं छपने
के लिये नहीं भेजता था। डर लगता था कि कोई प्रकाशित करेगा या नहीं।
ऐसे में गन्नू बाबू ही सहारा होते थे।
मैं उन्हीं को अपनी कहानियां पढ़ा देता।
पढ़ने के बाद वो कहते थे- अभी से इतने
बड़े हो गये!
मैं धन्य हो जाता। मेरे हाथ स्वतः ही
उनके चरण स्पर्श हेतु बढ़ जाते थे।
उनसे मैंने विनम्रता और धैर्य की सीख
ली। ऐसी सरल व निश्छल शख्सियत के इस धरती पर मुझे दोबारा अब तक दर्शन नहीं हुए।
अवध संस्कृति और इतिहास के सुविज्ञ ज्ञाता
और कवि योगेश प्रवीण ‘योगेश उनके पुत्र हैं।
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