-वीर विनोद छाबड़ा
आज सामूहिक नक़ल का ज़माना है। हमारे ज़माने
में भी नकल होती थी। इस मामले में कुछ कॉलेज बदनाम थे। लेकिन सामूहिक नकल नहीं सुनी।
कागज़ की छोटी छोटी अनेक पर्चियों, जिस महीन हैंडराइटिंग
में कुछ संभावित सवालों के जवाब लिखे जाते। इन्हें देख कर बेसाख़्ता मुंह से निकलता
था - वाह क्या नक्काशकारी है। ये पर्चियों पुर्ची भी कहलाती। इन्हें शर्ट और पैंट में
खासतौर बनाये ख़ुफ़िया स्थानों, मोज़े और जूते के तलवों में छुपा कर रखा
जाता।
इस सिलसिले में मुझे याद आती है 1969 यूपी इंटरमीडिएट बोर्ड
की परीक्षा। सेंटर था लखनऊ के कश्मीरी मोहल्ले का गिरधारी सिंह इंटर कालेज।
इस कॉलेज के प्रिंसिपल (नाम याद नहीं)
सख्ती के लिये मशहूर थे। लेकिन नक़लबाज़ छात्रों की दृष्टि में तो कुख्यात। नक़ल करना
बहुत मुश्किल ही नामुमकिन। ठीक वैसे ही कि परिंदा भी पर न मार पाये। 'पुर्ची' तो भूल ही जाइए। प्रिंसिपल
जाने कब तलाशी के लिए यमराज बन आ टपकें।
लेकिन नकलबाज़ों के हौंसले इन तमाम सख्तियों
के बावजूद कभी पस्त न हुए। चुनौती स्वीकार की गयी।
परीक्षाएं शुरू हुईं। पहला दिन गुज़रा।
दूसरा और तीसरा भी। प्रिंसिपल साहब के दर्शन नहीं हुए और न किसी अन्य ने चेकिंग की।
नकलबाज़ लड़कों के हौंसले बुलंद हुए। नकल न करने वाले भी खुल गए। छोटी मोटी पुर्चियां
एहतियातन रखने लगे।
चौथा दिन। आख़िर वही हुआ जिसकी आशंका
थी।
परीक्षा प्रारंभ होने से पांच मिनट पूर्व
प्रिंसिपल साहब कक्ष में आए और सख़्त लहज़े में बुलंद स्वर में बोले- पांच मिनट का वक्त
देता हूं। जिसके पास ‘पुर्ची’ हो, किताब हो। नकल का कोई भी सामान हो, बाहर जाकर फेंक आये।
वरना जब बाद में मैं तलाशी लूंगा और नकल का सामान पाया तो सीधा परीक्षा से बेदखल। याद
रखो मुझे मालूम है नक़ल का सामान कहां छुपा कर रखा जाता है। शक़ पड़ा तो पूरे कपड़े उतरवा
दूंगा।
ये कह कर प्रिंसिपल साहब दूसरे कक्ष
में यही घोषणा करने चले गए।
पूरे दमखम के साथ पुर्चीधारियों से निपटने
का खुला ऐलान। बड़े-बड़े दबंग नक़लबाज़ों के पसीने छूट गए।
मित्रों, आपको हैरानी होगी ये
जान कर कि उनके यह कहते ही दो छात्रों को छोड़ पूरी क्लास खाली हो गयी थी। मैदान में
पुर्चियां ही पुर्चियां। अनेक पुर्चियां तो हवा में उड़ने लगीं। मानों टिड्डी दल का
हमला हुआ हो।
बहरहाल, हम उन दो छात्रों में
नहीं थे।
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26-07-2015 Mob 7505663626
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