Saturday, July 4, 2015

भागो भागो भूत आया!

-वीर विनोद छाबड़ा
मैं भूत प्रेत को नहीं मानता। लेकिन एक ज़माना तो कि नाम लेते ही घिग्घी बंध जाती थी।
तब मैं नौ-दस बरस का था। आलमबाग का चंदर नगर इलाका। चंदर नगर मार्किट। नीचे दुकानें और ऊपर फ्लैट। इन्हीं में एक फ्लैट में हम भी रहते थे। एक बड़ा सा पुराना खंडर गेट। उसके पीछे कुछ दूरी पर खंडर बन चुका किला। इन दोनों के बीच दो पीपल के पेड़। दो बड़े खाली मैदान। किले के पीछे जनता स्कूल जहां पांचवे से आठवें तक मैंने शिक्षा ग्रहण की। किले के दायीं ओर गुरुद्वारा और एक अंग्रेज़ों के ज़माने का कब्रिस्तान। सुना था १८५७ का ग़दर यहां लड़ा गया। सैकड़ों जानें गयी थीं। आज़ादी के मतवालों की भी अंग्रेज़ी फ़ौज़ की भी।

लोग बताते थे कि मरने वाले भूत बन गए। वो सब इसी किले में रहते हैं। कुछ पीपल के पेड़ों पर। शाम ढलते ही यह सारे भूत बाहर निकलते हैं। भोर होने तक नाचते हैं, कूदते हैं। खूब मस्ती करते हैं। अंग्रेज़ों की कब्र में पड़े मुर्दे भी शोर-गुल सुन भूत बन कर बाहर आ जाते हैं और भूतों की इस मंडली में शामिल हो लेते हैं। भूत-प्रेत किसी धरम को नहीं मानते। जो भी उधर से गुज़रता है उसे पकड़ लेते हैं। फिर सब मिल कर उसका खून चूसते हैं। तब तक, जब तक कि वो मर न जाये। जानवरों को भी नहीं छोड़ते। उन दिनों जो भी मवेशी ग़ायब होते थे तो यही माना था कि भूत निगल गए।
यह भी माना जाता था कि कुछ पर तो भूत चिपक जाता है। उसी के साथ सोता-खाता है। उलटी-सीधी हरकतें करता है। एन्जॉय करता है। तब ओझा लोग बुलाये जाते हैं। तरह तरह की यंत्रणाएं देकर भूत को भगाते हैं। मैंने उस दौर में एक व्यक्ति को मरते देखा है। वो यंत्रणा बर्दाश्त नहीं कर पाया था। सबने कहा भूत ने उसे भी भूत बना दिया। 
मेरे मामा का घर था, गुरूद्वारे के सामने। अभी भी है। खेलते-कूदते चले जाते थे मामा के घर। कभी-कभी पीछे आर्यसमाज मंदिर चले जाते थे। मां कहती थी अँधेरा होने से पहले वापस आ जाना। शाम लौटते हुए देर हो जाती थी। गहरा सन्नाटा। न आदम और न आदम की जात। कुत्ते भौंका करते थे। अकेले कभी नहीं गुज़रे उधर से। झुंड में होते थे। बलां की स्पीड से हनुमान जी को याद करते हुए पीपल के पेड़ से दूरी बनाते हुए भागते थे। मां ने सिखा रखा था - महावीर जब नाम सुनावा भूत पिशाच निकट नहीं आवा।

आज मामा नहीं रहे। ममेरा भाई भी नहीं रहा। मामा के पौत्र हैं। उसी घर में रहते हैं जहां बचपन में खेलते कूदते पहुंच जाते थे। कभी-कभी उनका हाल चाल जानने चला जाता हूं। वो दौर याद आता है। सब कुछ है वहां। वो चंदर नगर मार्किट, वो गेट, वो पीपल के पेड़, वो मैदान, वो किला, स्कूल, गुरद्वारा, क़ब्रिस्तान।
लेकिन इसके बावजूद सब कुछ बदल गया है। एक बड़ा मंदिर बन गया है। मैदान सिमट चुका है। वहां टेलीफोन एक्सचेंज है। सरकारी अस्पताल है। और भी बहुत कुछ। दूर दूर तक रिहाइशी मकान। सैकड़ों स्कूटर कारें और उनका शोरगुल। सब्जी मंडी भी है। नहीं है तो डर। रात किसी भी वक़्त वहां से निडर गुज़र सकते हैं। कोई भूत-प्रेत नहीं है वहां अब। सब भाग गए। इंसानों से डर गए। सच है। हमारे वक़्त का इंसान बड़ा भोला होता था। आज भी हैं थोड़े बहुत जिन्हें भूत प्रेत के नाम से डराना मुश्किल नहीं है।
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