Friday, July 17, 2015

याद आया ज़माना खटियन का।

-वीर विनोद छाबड़ा
याद आता है चारपाई जा ज़माना। इसे खाट, खटिया, खटोला भी कहा गया। पंजाब में छोटे साइज़ को मंझी और बड़े को मंझा। एक ही आइटम। अलग-अलग नाम। थोड़ा साइज़ में भी फ़र्क।
वैसे नाम में क्या रखा है? राम कहो या रहीम। चारपाई कहो या खाट। सोना ही तो है। अगर नींद आ जाये तो सपने तो एक से ही आने हैं। मुल्ला भी सोये इस पर और पंडित भी। क्षत्रिय भी सोये और छोटी जात का भी। अमीर भी सोये और गरीब भी।

हाई-वे के किनारे ढाबों पर भी बड़ी तादाद में देखे हैं। बीच में पटरा रख कर ट्रक ड्राइवर और मुसाफ़िर खाना खाते हुए देखे हैं। एक बार तो मैंने भी खाया है। पालथी मार कर बैठे थे। कई लोग पसरे हुए खर्राटा मारते हुये भी दिखे।
इधर पिछले पांच साल से हाई-वे पर नहीं गया। सुना तो है, ढाबों के सामने अब भी बड़ी बड़ी चारपाइयां बिछी होती हैं। लेकिन साथ ही तख़्त भी आ गए हैं और लोहे के पाइप वाली फोल्डिंग प्लास्टिक रेशे की निवाड़ वाली चारपाइयां भी। च्वॉइस दे दी गई है। चाहे इस पर बैठो या उस पर। 
तीस साल पहले तक तो इनका अपने लखनऊ शहर में भी चलन था। रोज़गार का बड़ा साधन। बाक़ायदा चारपाई बीनने वाले सुबह से शाम तक गली-गली आवाज़ें दिया करते थे - चारपाई बिनवा लो, चारपाई। छोटी-बड़ी मरम्मत भी हो जाया करती थी। कभी-कभी तो पाया ही बदलना पड़ता। हमने अपने कई बड़े-बुज़ुर्गों को कपडे धोने वाला साबुन बनाते और चारपाई भी बिनते भी देखा और साथ में मदद भी की।
चारपाई का वाकई अपना आनंद था। बच्चों का खासतौर पर खूब उछलना याद है। मां का डांटना और ढीले पड़ गए बान को नारियल की रस्सी वाली अर्ज़वाइन से कसना।
माफ़ करना मित्रों याद नहीं आ रहे इसमें प्रयोग किये जाने वाले आइटम और उनके नाम। इतना ज़रूर याद है कि सुतली से बुनी चारपाई ज्यादा मानी जाती थी। यों मुझे तो ढीली-ढाली और जगह-जगह से टूट गए बान वाली खटिया में सोने में बेहद आनंद आया। झूले जैसा आनंद मिला। कहावत भी थी भूख न देखे सूखी रोटी और नींद न देखे टूटी खाट।
खटिया पर सोने वालों की कमर अक्सर दुखा करती थी। डॉक्टर उन्हें ज़मीन या तख़्त पर सोने की सलाह दिया करते थे।
आलमबाग और चारबाग़ वाले घरों की छतें मिली हुईं थीं। गर्मियों में छत पर दूर दूर तक चारपाइयों का बिछा होने का नज़ारा याद आ रहा है। रात में बरसात होने पर मचती थी भगदड़।अपनी-अपनी चारपाई सुरक्षित रखने की होड़ मच जाती।
यह भी याद है भरी दोपहरिया में चारपाई को उल्टा लिटा कर उसके पाये ज़मीन पर पटकना। हर बार ढेर खटमल निकलते जिन्हें हम चप्पल से कूट देते। रात भर हम लोगों को चूसा हुए लाल लाल खून निकलता। कई बार चारपाई के पाये की चूलों गर्म गर्म पानी डाल देते। उससे भी ढेर खटमल बाहर आ जाते। कोई खटमल मार केमिकल भी याद आता है।  
हमें याद आता है ४२ साल पुरानी फिल्म 'छुपा रुस्तम' का किशोर की आवाज़ में यह गाना - धीरे से जाना खटियन में ओ खटमलऔर २१ साल पुराना राजा बाबू का यह वाहियात गाना भी - सरकाय ले खटिया के जाड़ा लगे

मैंने कल एक शहर के चप्पे-चप्पे से वाकिफ़ अपने एक परम मित्र से पूछा - कहां मिलेगी अपने ज़माने की खटिया?
वो बोले  - नक्खास चले जाओ।
हमारे लखनऊ का एक ख़ास है मोहल्ला और बाज़ार है नक्खास। इतवार को चले जाइये। सुई से लेकर तोप तक के साइज वाले सौ-दो सौ साल पुराने आइटम भी मिल जाएंगे। खटिया क्या चीज़ है!
मुझे ऐसा लगता है दूरस्थ कस्बों और ग्रामीण इलाकों के घर-घर में अपने ज़माने की खटिया अभी भी ज़िंदा है।

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17-07-2015 Mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar Lucknow-226016

1 comment:

  1. मस्त पोस्ट है ... मजा आया पढ़ के ...

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