-वीर विनोद छाबड़ा
१२ जुलाई को इप्टा
की ओर से राजकमल प्रकाशन के सहयोग से लखनऊ में एक समारोह हुआ।
प्रथम सत्र कथाकार,
संपादक तद्भव पर केंद्रित 'बनास जन' पत्रिका के लोकार्पण
पर केंद्रित रहा। सुप्रसिद्ध पत्रिका 'बनास जन' के संपादक पल्लव हैं।
इसका वर्तमान अंक तद्भव के संपादक और कथाकार पर केंद्रित है जिसके संपादक राजीव हैं।
अध्यक्षता रवींद्र
वर्मा ने की। मंच पर रूप रेखा वर्मा, अखिलेश, शिवमूर्ति,
राजीव, पल्लव और बद्री नारायण उपस्थित रहे।
सुप्रसिद्ध कथाकार
शिवमूर्ति जी कहा - अब तक अखिलेश तद्भव के माध्यम से सबको सामने लाते रहे हैं और आज
'बनास जन' के संपादक अखिलेश को दुनिया के सामने लाये हैं जिसके लिए वो
बधाई के पात्र हैं।
'बनास जन' के अतिथि संपादक राजीव ने अखिलेश को चुनने का कारण बताया - आज
के भूमंडलीकरण के दौर में अखिलेश की कहानियां जनमानस को छूती हैं। संप्रेषण की जटिलता
की चुनौतियों को स्वीकार करती हैं। उन्हें सहज बनाती हैं।
कवि बद्री नारायण महसूस
करते हैं कि आज जब प्रेरणायें और स्त्रोत ख़त्म हो चुके हैं ऐसे में बौद्धिक उछाल के
साथ अखिलेश सामने आये। अखिलेश ने अपनी रचना में
भावनात्मक न्यूक्लस को उभारा।
वरिष्ठ कथाकार रवींद्र
वर्मा ने अखिलेश की रचनाओं में भाषा और कथ्य को महत्वपूर्ण पाया। उन्होंने अभिव्यक्ति
के लिए भाषा की ज़रूरत पर भी बल दिया। इस सत्र का संचालन इप्टा के राष्ट्रीय सचिव राकेश
ने किया।
दूसरे सत्र में 'वर्तमान चुनौतियों
के परिप्रेक्ष्य में साहित्यिक पत्रकारिता' विषय पर सेमिनार हुआ।
इसकी अध्यक्षता वरिष्ठ
कथाकार गिरीश चंद्र श्रीवास्तव ने की। मंच पर रवींद्र वर्मा, वीरेंद्र यादव,
शैलेंद्र सागर, विजय राय और पल्लव भी उपस्थित रहे।
सुप्रसिद्ध समालोचक
वीरेंद्र यादव की राय में आज के दौर में यह विषय अत्यधिक चिंतन का है। उन्होंने याद
दिलाया कि साहित्यिक पत्रकारिता की चुनौतियां उन्नीसवीं शताब्दी में भी थी और बीसवीं
शताब्दी के प्रारंभ में भी। आज इक्कीसवीं सदी में यह घोषित चुनौती है। राष्ट्र को हिंदू
राष्ट्र में स्थापित किया जा रहा है। सौ साल पीछे जाने पर पाते हैं कि इस धारणा के
विरुद्ध आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' में 'देश की बात'
पुस्तक पर टिप्पणी करते हुए लिखा था लगान बंद हो जाए तो सारा तंत्र फेल हो जाये।
उस समय रूस में क्रांति नहीं हुए थी।
कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म भारत में नहीं हुआ
था। मगर हमारी साहित्यिक पत्रकारिता चिंतित थी। उसका लंबा इतिहास रहा है। आज से १००
साल पहले जून १९१५ में गणेश शंकर विद्यार्थी ने हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना से मुठभेड़
की थी। उन्होंने कहा था ऐसी कल्पना करने वाले राष्ट्र का अर्थ ही नहीं समझते। हिन्दू
राष्ट्र कभी बन ही नहीं सकता। १९२२ में माधवी पत्रिका में 'ईश्वर का बहिष्कार'
विषय पर लेख छपे। बहुत विरोध हुआ। लेकिन पत्रिका चलती रही। १९३८ में यशपाल जी की
'विप्लव' पत्रिका में प्रकाशित रचनाओं को पढ़ने से ज्ञात होता है की आज़ादी
के आंदोलन में कांग्रेस और मुस्लिम लीग की क्या भूमिकाएं थीं। प्रेमचंद ने 'हंस' में भीमराव अंबेडकर
की तस्वीर मुखपृष्ठ पर छाप कर उनकी भूमिका को स्वीकार किया था। उस दौर में समाजवादी
और साम्यवादी विचारधारा से प्रेरणा लेकर सोच निर्धारित की जाती थी। आज विचारहीनता है।
१९९२ में बाबरी मस्जिद के ढहाये जाने से सामाजिक समरसता के ढांचे को धक्का लगा और भूमंडलीकरण
ने कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को पीछे धकेल दिया। धनिक तंत्र की स्थापना हो गई। सामाजिक
समरसता और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर लेखक बंटा हुआ है। लूट मची है। अपराधी एक
एक करके छूटे जा रहे हैं। बुद्धिजीवी बंद किये जा रहे हैं या हाशिये पर धकेले जा रहे
हैं। सोच बनाने वाली सभी स्वायत्तशासी संस्थाओं के शीर्ष पर आरएसएस की सोच के लोग बैठाये
जा रहे हैं। लेखक कहने के लिए मजबूर हो गया है कि उसके अंदर का लेखक मर गया है। नवीनतन
उदाहरण फ़िल्म इंस्टीट्यूट का है। शीर्ष पर बैठाये व्यक्ति का पुरज़ोर विरोध हो रहा है।
लेकिन केंद्र पुनर्विचार करने के बजाये धौंसिया रहा है। फैसला नहीं बदला जाएगा। इमरजेंसी
के दौरान पहल जैसी लघु पत्रिका ने आवाज़ उठाई थी। आज प्रगतिशील लेखकों का अधिग्रहण किया
जा रहा है। उनका मुखपत्र सामाजिक समरसता की बात करने वाले डॉ अंबेडकर को हिंदू विचारधारा
के समर्थक के रूप में प्रस्तुत करता और पेरियार को हिंदू विरोधी। ऐसे में लघु पत्रिकाओं
से साहित्यिक पत्रकारिता की ज़रूरत है। अपना इतिहास को खंगालें। जनतंत्र को बचाने के
लिए एकजुट होकर आंदोलनकारी स्वरुप अपनाना पड़ेगा। कॉरपोरेट से स्वयं को बचाते हुए अभिव्यक्ति
का भरपूर इस्तेमाल करने और आक्रामकता की ज़रूरत है।
कथाक्रम के संपादक
और कथाकार शैलेंद्र सागर इतिहास में झांकने पर पाते हैं कि साहित्यिक पत्रिकायें पढ़ी
जाती थीं। कुछ साल पहले तक 'धर्मयुग' और 'साप्ताहिक हिंदुस्तान'
भले ही पूर्णतया साहित्यिक पत्रिकाएं नहीं थीं परंतु साहित्य को पढ़ने के लिए प्रेरित
करती थीं। सिर्फ़ साहित्यकार ही नहीं, समाज का हर बुद्धिजीवी
चिंतक था। हर दौर का शासक अपने काडर के लोगों को प्रमोट करता है। मगर आज दिक्कत यह
है कि काडर के निकृष्ट लोगों को आगे बढ़ाया जा रहा है और अच्छे लोगों को पीछे धकेला
जा रहा है। आज की, कल की और उससे भी आने कल की पीढ़ी किस प्रकार का साहित्य और हिंदी
पढ़ रही है यह चिंता का विषय है। चिंतन करना है कि साहित्य के प्रति कैसे लोगों को आकर्षित
करना है। साहित्य पत्रिकायें आजकल जिस प्रकार के मुद्दों और विमर्श को उठा रही हैं
उसमें किसान आंदोलन नहीं है, आदिवासी जीवन नहीं है। आत्महत्या के कारण
नहीं बताये जा रहे हैं। नई पत्रिकाये आ रही हैं, यह शुभ संकेत है। मगर
निगेटिव रचनायें छप रहीं हैं। आज से कुछ साल पहले तक यह संभव ही नहीं था। इसका असर
यह है कि गुणवत्ता प्रभावित हुई है। लेखक एक्टिविस्ट की भूमिका में नहीं है। यही बात
साहित्यक पत्रकारिता के बारे में भी कही जा सकती है।
'लमही' के संपादक विजय राय
ने बताया कि आज़ादी पूर्व की तत्कालीन पत्रकारिता पर कहा गया था कि कुछ समय बाद यहां
मशीन होगी। व्यक्ति भी वैसा ही होगा। खिंची हुई लकीर पर चलना रह जाएगा। आज की पत्रकारिता
भिन्न नहीं है।
साहित्य हड़बड़ी में लिखा जा रहा है। ई-बुक्स का दौर है। नई तकनीक है।
पुराने सामाजिक मूल्य ध्वस्त हो रहे हैं। नए परिवेश स्थापित हो रहे हैं। पत्रकारिता
मनोरंजन हो गयी है। मीडिया के नए संसाधन, नयी तकनीक,
चैनल और यांत्रिक विकास है। दो राय नहीं कि पुरानी रूढ़ियां को इसने तोड़ा है।
दिल्ली से आये अंग्रेज़ी
शिक्षक डॉ आशुतोष मोहन का विचार था कि पत्रिका चाहे छोटी हो या बड़ी, अगर उसका उसका लक्ष्य
साफ़ हो, फ़ोकस हो तो वार खाली नहीं जा सकता। अंग्रेजी में तो इसका सर्वथा
अभाव है। उसका ज्ञान चेतन भगत तक सीमित है। इस पर उसे गर्व भी है। इसका मतलब है कि
कहीं कुछ कमी है। अच्छा और जागरूक साहित्य क्या होता है, यह बताने का माध्यम
आज नहीं है। ज़रूरत अच्छी और इंफार्मेटिव पत्रिकाओं की है।
'बनास जन' के संपादक पल्लव ने
बताया कि एक समय था जब वह देश की सारी समस्याओं के लिए आरक्षण और अंबेडकर को ज़िम्मेदार
मानते थे। लेकिन एक पत्रिका में उन्होंने गीता पर डॉ अंबेडकर का एक लेख पढ़ा। उनकी डॉ
अंबेडकर के बारे में धारणा ही बदल गयी। पत्रिका एक ऐसी शक्ति है जो पाठक का दिमाग ही
बदलने की शक्ति रखती है। उन्होंने बताया कि लखनऊ में एक चौराहे पर महाराणा प्रताप की
मूर्ति देख चित्तौड़गढ़ निवासी होने पर उन्हें गर्व हुआ। लेकिन यह पढ़ कर दुःख हुआ कि
उन्हें हिंदू शौर्य का सूर्य माना गया है। शायद लोगों को यह नहीं मालूम कि हल्दी घाटी
की लड़ाई में महाराणा प्रताप का सेनापति एक मुस्लिम था और अकबर का सेनापति हिंदू था।
यह न पढ़ने का परिणाम है। एक बार अपने एक भाषण में नेहरू ने महाराणा प्रताप को बहुत
ऊंचा स्थान देते हुए कहा था कि बाबर आक्रमणकारी था, लेकिन अकबर यही पैदा
हुआ और यहीं रह गया। बाज़ारवादी शक्तियों ने हमारी सूची ख़त्म कर अपनी स्थापित कर दी
है। वही तय कर रही हैं कि हमें क्या खाना और पहनना है, और क्या पढ़ना है। साहित्य
आदमी को अकलमंद बनाता है। उदारीकरण नहीं, असंस्कृति का दौर है
यह। बाज़ारीकरण करेंगे तो साहित्य का नुकसान होगा, यह कहना आसान है। विचारधारा
थोपी नहीं जा सकती। ज़रूरत है अपने को कायदे से रेखांकित करें। नए लोगों को ज्यादा से
ज्यादा पढ़ना चाहिए। साहित्य में कैरियरवाद से बचें। लघु पत्रिकाओं को खरीदें और पढ़ें।
वरिष्ठ कथाकार गिरीश
चन्द्र श्रीवास्तव की नज़र में आर्थिक सुधारीकरण ने पूरे समाज के हर अंग को बुरी तरह
से जकड़ लिया है। राजनीतिक भ्रष्टाचार बढ़ा है। कोई बचा सकता है तो साहित्य। साहित्य
चेतना पैदा करता है। साहित्य के माध्यम से चेतना में स्थायी परिवर्तन संभव है। प्रेमचंद
ने रचनाओं के माध्यम से लंबी लड़ाई लड़ी। उन्होंने कहा कि राजनीति नहीं, साहित्य मशाल है। साहित्य
मुक्ति का माध्यम है। आज मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है। साहित्य इस यथार्थ को पूरी
ईमानदारी से प्रस्तुत करे। आज साहित्य पाठक को प्रभावित नहीं कर पा रहा है। पाठक की
कल्पनाशीलता को पहचानना ज़रूरी है, तभी उसकी चेतना को प्रभावित किया जा सकता
है। भूमंडलीकरण स्थानिकता, संवेदना, सहानुभूति को ख़त्म करना चाहती है। परिवार
को ख़त्म करना चाहती है। हर लेखक समाज को बदलने के लिए कमिटेड होता है। अंतर्विरोधों
की तलाश करें। प्रतीकों के माध्यम से चेतना को प्रभावित करें। इस संबंध में मोहन राकेश
की कहानियां पढ़ी जानी चाहियें। मनुष्य और समाज को अलग करना संभव नहीं है। अपने दृष्टिकोण
को ईमानदारी से प्रस्तुत करें अन्यथा अप्रासंगिक हो जायेंगे। प्रेमचंद की कहानियां
समाज को दिशा देती हैं।
इस सत्र का संचालन
युवा कथाकार सूर्य बहादुर थापा ने किया।
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१३-०७-२०१५
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