-वीर विनोद छाबड़ा
नसीरुद्दीन के ६५ वर्ष पूर्ण करने पर।
१९७८ में लखनऊ में शशिकपूर की 'जुनून' की शूटिंग चल रही थी। वहीं मेरी नसीरुद्दीन शाह से पहली और आख़िरी मुलाक़ात हुई।
बढ़ी हुई घनी काली और लंबी दाढ़ी। एकबारगी मैं उन्हें पहचान नहीं पाया। ज्यादा लोग पहचानते
भी नहीं थे उन्हें उन दिनों। मैंने एक इंटरव्यू किया। लेकिन छप नहीं पाया। कारण, नसीर ने वादा करके
भी अपनी तस्वीर नहीं दी और मैं संपादकजी दे नहीं पाया।
मुझे याद है कि जब मैंने नसीर को बताया कि 'माधुरी' में राही मासूस रज़ा
का एक आर्टिकल आया है। उसमें राही ने आपकी बहुत तारीफ़ की है। दिलीप कुमार के बराबर
ला खड़ा किया है।
इस पर नसीर मुस्कुराये थे। उनके चेहरे पर गर्व था मगर घमंड नहीं। धीरे से बोले
- मैंने भी सुना है। लेकिन कहां युसूफ साहब और कहां मैं।
उस दौर में तब तक श्याम बेनेगल की मंथन, निशांत और भूमिका में नसीर दिखे थे। अच्छी अदाकारी के बावजूद
उन्हें पहचानने वाले कम थे। जिसने भी राही को पढ़ा, हंस दिया।
लेकिन साल गुज़रते-गुज़रते नसीर ने साईं परांजपे की 'स्पर्श' में जब बेस्ट एक्टर
का नेशनल अवार्ड जीता तो राही साहब का कथन सच होते दिखा। इसमें उन्होंने एक ऐसे खुद्दार
इंसान की भूमिका अदा की थी जो देख नहीं सकता था। नसीर ने यह अवार्ड १९८४ में 'पार' के लिए और २००४ में
'इक़बाल' के लिए फिर जीता। १९८१, १९८२ और १९८४ में क्रमशः आक्रोश,
चक्र और मासूम के लिए बेस्ट एक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड हासिल
किया। नसीर रिकॉर्ड १५ बार भिन्न-भिन्न किरदारों के लिए नॉमिनेट हुए। भारत सरकार ने
उन्हें १९८७ में पद्मश्री और २००३ में पद्मभूषण के लिए नवाज़ा। अलावा इसके अनेक नेशनल/इंटरनेशनल
अवार्ड उनकी झोली में गिरे।
जब कामयाबी सर पर चढ़ती है तो लाज़िमी है कि जाने-अनजाने हंगामा खड़े करने वाले बयान
मुंह से निकल ही जाते हैं। १९८५ में एक इंटरव्यू में नसीर ने कह दिया कि वो दिलीप कुमार
को बड़ा आर्टिस्ट नहीं मानते। बात ज्यादा तूल नहीं पकड़ी। बस थोड़ी-बहुत सुगबुगाहट हुई।
उन दिनों सुभाष घई 'कर्मा' की कास्ट फाइनल कर रहे थे। दिलीप कुमार के साथ में जैकी श्राफ और अनिल कपूर भी
थे। एक जगह खाली थी। वैसे, सुना है नसीर के बयान के बाद वो जगह बनाई गई। दिलीप के कहने पर नसीर को न्यौता
दिया गया। देखना है बाज़ुओं में कितना ज़ोर है। ज़बरदस्त हंगामा हुआ। सारा फोकस दिलीप
कुमार बनाम नसीर हो गया। देखें नसीर कैसे साबित करते हैं कि दिलीप कुमार बड़े नहीं हैं।
लेकिन फ़िल्म के ख़त्म होते-होते नसीर ने बयान बदल दिया - युसूफ भाई बहुत बड़े आर्टिस्ट
हैं।
इसी साल मार्च में नसीर ने राजनीति को परे रखते भारत-पाकिस्तान के अवाम के मज़बूत
रिश्तों पर बयान दिया। शिव सेना ने इस बयान का प्रतिरोध किया था।
बहरहाल नसीरुद्दीन उन विरल अदाकारों में हैं जो किरदार के साथ एकाकार हो जाते हैं।
अगर मुझे वोट करने को कहा जाए तो मैं उन्हें आल टाइम टॉप पांच में ज़रूर रखना चाहूंगा।
लेकिन त्रासदी यह है कि बावजूद इसके कि नसीर बेहतरीन अदाकार हैं, कोई-कोई उन्हें सदी
के महानायक से भी बेहतर बताता है, वो अपनी परफॉरमेंस के दम पर फ़िल्म को लिफ़्ट भी कर सकते हैं, ज़र्रे को आफ़ताब भी
बना सकते हैं, लेकिन अफ़सोस कि बॉक्स ऑफिस पर फ़िल्म को कामयाबी नहीं दिला सकते। दर्शक उनके नाम
पर खिंचा चला नहीं आ सकता।
उनकी कुछ अन्य बेहतरीन फ़िल्में हैं - दि परफेक्ट मर्डर, सरफ़रोश, खुदा के लिए, मानसून वेडिंग, मोहरा, मंडी, बाज़ार, कथा, इजाज़त, हीरो हीरालाल, गुलामी, त्रिदेव, दिल आख़िर दिल है, वो सात दिन, हे राम, इश्क़िया, डर्टी पिक्चर आदि।
मेरा वोट 'ए वेडनेसडे' के लिए है जिसमें वो डिसूज़ा, मोहम्मद, राम कुछ भी हो सकते हैं।
बेहतरीन परफॉरमेंस की एक और मिसाल है गुलज़ार के टीवी सीरियल 'मिर्ज़ा ग़ालिब' के मिर्ज़ा। जिसने सोहराब
मोदी की १९५४ में रिलीज़ 'मिर्ज़ा ग़ालिब' के मिर्ज़ा भारत भूषण को नहीं देखा है, वो नसीर को देख कर यही कहेगा कि मिर्ज़ा ग़ालिब ऐसे ही रहे होंगे।
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20-07-2015 mob 7505663626
D-2290, Indira Nagar,
Lucknow-226016
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