-वीर विनोद छाबड़ा
आज सुबह पढ़ा कि दिवंगत कलाम साहब की याद में कोई छुट्टी नहीं होगी।
कलाम साहब नहीं चाहते थे कि उनके मरने पर छुट्टी हो। सरकारी प्रोटोकॉल में भी
शायद ऐसा ही प्रोविज़न है कि पूर्व राष्ट्रपति की मृत्यु पर आदर स्वरूप छुट्टी नहीं
होगी।
इस ख़बर से कई लोग चौंके, कई को शॉक लगा। यार, छुट्टी मारी गयी। कहां लिखा है छुट्टी नहीं होगी? और कलाम साहब ने
ऐसा कब फरमाया? और यह संसद क्यों बंद रहेगी। बेहतर होता कि कलाम साहब को श्रद्धांजलि स्वरूप
संसद निर्बाध चलती।
बरसों से रिवाज़ रहा है कि किसी नेता/मंत्री की मृत्यु हुई नहीं कि छुट्टी का
ऐलान। कुछ के लिए वाकई शोक और कइयों के लिए जश्न। चलो कहीं घूम आयें। सिनेमा चलें।
जम कर सोया जाये।
चाहे स्कूल/कॉलेज रहा हो या सरकारी दफ़्तर। सहपाठी/सहकर्मी की मृत्यु पर छुट्टी
अनेक के लिए वरदान बनी। शमशान घाट पर,
कुछ अपवाद छोड़ दें तो श्रद्धांजलि देने बामुश्किल दस-बीस
पर्सेंटेज ही लोग हाज़िर होते हैं। सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि बाकी क्या करते
हैं।
एक घटना याद आती है। उन दिनों मैं हाई स्कूल में था। एक अध्यापक के दिवंगत
होने की ख़बर आई। सुबह की प्रार्थना के बाद इसकी सूचना दी गयी। दो मिनट का मौन और
फिर घोषणा कि आज पढाई नहीं होगी। कुछ उत्साही सिनेमा प्रेमी लड़कों ने ताली बजा दी।
जम कर उनकी सुताई तो होनी ही थी।
एक और घटना याद आई। सोवियत संघ के राष्ट्रपति लियोनिद ब्रेज़नेव की नवंबर १९८२
में मृत्यु हुई। सोवियत संघ से प्रगाढ़ रिश्तों के दृष्टिगत भारत सरकार ने
राष्ट्रीय शोक की घोषणा की। एक दिन छुट्टी भी रही। जबकि इसके उलट सोवियत संघ में
छुट्टी नहीं हुई। बल्कि उनके क्रिमेशन के दिन कामगारों ने दो घंटे ज्यादा काम
किया। कड़े परिश्रम को समर्पित नेता को राष्ट्र इससे बेहतर श्रद्धांजलि क्या दे
सकता है?
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30-07-2015 Mob 7505663626
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