Monday, July 6, 2015

आओ, खेलें कंचे!

-वीर विनोद छाबड़ा
कंचे। मेरी हमउम्र का शायद ही कोई हो जिसने बचपन में कंचे न खेले हों।
पिताजी बताते थे कि पंजाब में इसे बंटे कहते थे। हमने तो खूब खेले हैं। गुचक वाला खेल और लाइन वाला भी। उस ज़माने में कंचे सहित किसी भी खेल को बरबादी की निशानी करार दिया जाना मामूली बात थी।

हमें याद है कि नशा था कंचे खेलना। मां कहती थी - जब देखो कंचे। कंचे ही कंचे। और कुछ याद ही नहीं।
कई बार स्कूल जाने के लिए घर से निकले। लेकिन पहुंच कंचे खेलने, आवारा लड़कों के संग। एक बार किसी ने शिकायत कर दी। मास्टर जी आकर दबोच लिया।
स्कूल से लौटते हुए भी कंचे खेलना तकरीबन रोज़मर्रा का शुगल था। बहाना बनाते - मास्टरजी ने रोक लिया था।
लेकिन बकरे की मां कब तक खैर मनाती। धर लिए गए एक दिन। खूब पिटे। उस दिन के बाद से कंचे खेलना बंद हो गया।
नेकर की जेबें फट जाया करती थीं, कंचों के बोझ से। मां गुस्साती थी - कब तक सिलूंगी तुम्हारी जेबें।
जेब में रखे कंचे खड़कते थे। पकड़ हो जाती। एक बार क्लास में भी पकड़े गए। ज़मीन पर गिरा था कंचा।
आवश्यकता अविष्कार की जननी होती है। हमने नहीं सुना था, इस ब्रह्म वाक्य को। लेकिन, बचाव का उपाय कर लिया था। जुराब में कंचे भर लेते और फिर कस कर बांध देते। उस ज़माने में जुराबें लंबी और कॉटन की होती थीं।
डालडा घी का चार सेर वाला एक टीन का डिब्बा और उसके मुंह तक भरे कंचे। यह खरीदे हुए नहीं थे। खेल में जीत कर हासिल किये थे। अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कितने बड़े कांचेबाज़ थे हम। हालांकि हमसे भी बड़े थे। वे बताते थे - हमारे घर में पीपों और बोरियां में भरे होते हैं कंचे।
रंग-बिरंगे कई साइज़ के कंचों का संग्रह था। अपने दोस्तों का बड़े फख्र से दिखाते। कई बार गिफ्ट भी किये। कोई कोई मित्र चोर होता था। नज़र बचा कर एक -आध जेब में रख किये जाते।
कांच के बने होते थे कंचे। जो रगड़ से छिल जाते, उन्हें बेकार करार दिया जाता था।
मां को हमेशा डर लगा रहता कि मुंह में कंचा न डाल लूं। हम समझाते थे कि कोई बच्चा नहीं हूं मैं। हमें याद है कि हमारे पड़ोस में घुटने चलने वाले बच्चे ने खाने वाली चीज़ समझ कंचा मुंह में डाल लिया था। गले में फंस गया। सांस लेने में दिक्कत होने लगी। डॉक्टर ने निकालने की कोशिश की तो पेट में चला गया। शुक्र है सांस की नली में नहीं गया। दूसरे दिन पॉटी के साथ बाहर निकल गया।

कंचे के नाम से याद आती है - बंटे वाली कोल्ड ड्रिंक की बोतल। हमारे लखनऊ के नाका चारबाग़ के इलाके में एक सरदारजी की कोल्ड ड्रिंक की दुकान पर उपलब्ध थी। दस पैसे में। जब मौका मिलता गटक जाते।

मुझे याद आती है एक पंजाबी फिल्म - सत सालियां। हीरो रविंद्र कपूर शादी के लिए लड़की देखने जाता है। उसके सामने कोल्ड ड्रिंक की बोतल रखी जाती है। वो जिद्द करता है - मैंनू बंटे वाली पीनी है। इंदिरा बिल्ली इसकी हीरोइन थी।
इधर कई साल से किसी को कंचे खेलते नहीं देखा। शो-पीस होकर रह गए हैं। ड्राइंग रूम में किसी बाउल में दिखते तो गमलों में शोभा बढ़ाते हैं। वक़्त के खेल भी निराले हैं। एक ज़माना वो था जब कंचों का घर में घुसना प्रतिबंधित था आज वो शान से ड्राइंग रूम में विराजमान हैं। कभी-किसी तो फिल्म में दिख जाते हैं, ज़मीन पर बिखरे हुए और लोग उस पर पैर पड़ते ही फिसल-फिसल जाते लोग। दर्शक हो-हो कर हंसने लगते हैं।
अचानक नींद खुलती है। पत्नी कहती है - क्यों हंस रहे हो। फिर कोई सपना देखा।
मैं कहता हूं - हां, कंचे। मुझे अहसास होता है कि मेरी आंखें कंचे के तरह चमक रही हैं।
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