Thursday, September 1, 2016

दस साल बाद।

- वीर विनोद छाबड़ा
कभी कभी कोई ऐसी कुड़ी मिल जाती है जो कभी सपनो में भी नहीं दिखती।
आज हमारे साथ ऐसा ही हुआ। हम बैंक गए। रुपया लिया। काउंटर के किनारे खड़े हो कर इत्मीनान से गिना और फिर पैंट की चोर जेब में ठूंसा।
तभी किसी ने पीछे से ठुनका मारा। हम चौंक कर पलटे।
हमारी सहकर्मी थीं। मिसेस चंद्रा वैस्ले वर्मा। हम हैरान रह गए। रिटायरमेंट के बाद पहली बार। दस साल हो गए। बिलकुल वैसे ही दिखीं, जैसी कि आखिरी बार। वो उनके रिटायरमेंट का दिन था। हमने उनको कॉम्प्लीमेंट दिया था - मैडम कोई कह नहीं सकता कि साठ बरस की हैं।
आज भी हमने उनको यही कॉम्प्लीमेंट दिया। ३५-४० से ज्यादा नहीं दिख रही हैं। वो बड़ी ज़ोर से हंसीं। बैंक में खड़े तमाम लोग हमें देखने लगे।
हमें याद आया कि ऑफिस के काम को लेकर उन्होंने हमें कई बार डांट लगाईं। वो बड़ी थीं। इस नाते हम चुपचाप डांट खाते रहते थे। फिर अंत में हम उन्हें याद दिलाया करते थे -  मैडम आई ऍम द बॉस एंड बॉस इज़ ऑलवेज राईट।
वो सॉरी कह देतीं थी। फिर कॉफी का आर्डर।

बाज़ सहकर्मी रिटायरमेंट के बाद बिलकुल नहीं दिखते। गायब ही जाते हैं। न कोई खोज और न कोई खबर। कभी कोई बताता है कि फलां को गुज़रे तो मुद्दत हो गई।चंद्रा जी बताने लगीं कि बहु-बेटे के साथ दिल्ली में सेटल हो गईं हूं। लखनऊ से सिर्फ पेंशन का नाता रह गया है बस।
कुछ देर हमने बात की। मोबाईल नंबर एक्सचेंज किये, दुःख-सुख बताने के लिए। टा-टा बाई बाई। हाथ मिलाया। याद आया कि बड़ी हैं। चरण स्पर्श किया।

थोड़ी दूर निकल गया तो याद आया कि उनकी तस्वीर लेना भूल गया। भूलने की पुरानी आदत है। हम अक्सर मौके खोये हैं। आज फिर खो दिया। लेकिन आशावादी हूं। हो सकता है कि ज़िंदगी कभी दुबारा मौका दे। दस साल बाद और हम एक-दूसरे को पहचान लें। 
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