Saturday, September 17, 2016

विमल दा के कहने पर 'भौंकने' लगे थे केश्टो

- वीर विनोद छाबड़ा
जो शराब नहीं पीते हैं उन्हें शराबियों की तुलना में ज्यादा नशा चढ़ता है। ऐसी ही मिसाल थे साठ, सत्तर और अस्सी के दशक में फक्कड़ और बिंदास शराबी के बेशुमार किरदार अदा करने वाले केश्टो मुखर्जी। उनकी इतनी आमदनी ही नहीं थी कि शराब पियें। अब ये मुकद्दर की ही बात है कि लोकप्रियता और पहचान बतौर पियक्कड़ ही मिली। इसकी शुरूआत हुई मां और ममता (१९७०) के सेट से। डायरेटर असित सेन को एक पियक्कड़ की ज़रूरत थी। काम की तलाश में केश्टो वहीं मंडरा रहे थे। असित दा ने पूछा - शराबी की एक्टिंग करेगा?
ना करने की स्थिति में नहीं थे केश्टो। बेमिसाल कामयाबी मिली। उसके बाद केश्टो ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। केश्टो पियक्कड़ के किरदार को फिल्म दर फिल्म पारिमार्जित करते गए। केश्टो और शराबी एक दूसरे के पूरक बन गये। लोग ये भी समझने लगे कि केश्टो वाकई हर वक्त टुन्न रहते हैं तभी तो शराबी की इतनी परफेक्ट एक्टिंग कर पाते हैं। निर्माताओं ने तमाम पटकथा लेखकों को कह दिया गया कि शराबी का किरदार लिखते वक़्त सिर्फ़ और सिर्फ़ केश्टो ही दिमाग में हो और जिस स्क्रिप्ट में शराबी का किरदार नहीं है उसमें किसी न किसी तरह इसे डालें। केश्टो की मौजूदगी एक शुभंकर है। वरना डिस्ट्रीब्यूटर फिल्म नहीं उठायेगा।

लेकिन ऊंची पायदान तक केश्टो यों ही नहीं पहुंचे। बहुत पापड़ बेले। पहली फिल्म ऋतिक घटक की बांगला फिल्म नागरिक (१९५२) थी। ऋषिकेश मुखर्जी ने मुसाफिर में उन्हें एक स्ट्रीट डांसर की भूमिका दी। बताया जाता है कि केश्टो एक बार काम के सिलसिले में बिमल राय से मिले। बिमल दा बोले - अभी तो नहीं है, फिर आना। मगर केश्टो खड़े रहे। बिमल दा ने उन्हें वहीं खड़े देखा तो झल्ला गए। अभी कुत्ते की आवाज़ की ज़रूरत है। भौंक सकते हो?
कोई और मौका होता तो केश्टो खुद को अपमानित मान कर निकल चुके होते। मगर पेट की भूख ने उन्हें वहां से हिलने नहीं दिया। वो कुत्तों की तरह भौंकने लगे। बिमल दा उछल पड़े। परफेक्ट, बिलकुल ऐसी ही आवाज़ चाहिए। एक बार केश्टो को बड़े संगीन हालात में काम करना पड़ा। वो सख्त बीमार थे। ईलाज के लिये ज्यादा पैसे की ज़रूरत थी। अस्पताल से उठ कर बेरहम (१९८०) की। पैसे मिले और अपनी जान बचाई।

ऐसा बिलकुल नहीं है कि केश्टो सिर्फ शराबी की भूमिकाओं के लिय याद किये जाते हैं। 'मेरे अपने' में केश्टो चुनाव जीतने के लिये स्थानीय गुंडों को मूर्ख बना रहे थे। 'बांबे टू गोवा' यात्रा भर केश्टो बिना कुछ बोले औंघाते रहे। इससे पहले लाईट कामेडी सुहाना सुफ़र में भी वो ऐसा ही किरदार कर चुके थे। परिचय में केश्टो प्राण के शरारती पोते-पोतियों को पढ़ाने के लिये निजी टयूटर रखे गये। बच्चों ने भूत का भय दिखा कर भगा दिया। तीसरी कसम में शिवरतन के किरदार में राजकपूर के साथ दिखे थे। पिंजरे के पंछी में वो नाई थे और बरसों बाद सिप्पी की 'शोले' में उन्हें फिर नाई हरिराम बनना पड़ा। एक कैदी की आधी मूंछ साफ कर दी। 'पड़ोसन' में वो किशोर कुमार की संगीत नाटक मंडली के एक महत्वपूर्ण सदस्य थे जिसमें उनके किरदार का नाम कलकत्तिया था। इसी तरह 'साधु और शैतान' में वो एक बार फिर किशोर की संगीत मंडली के सदस्य थे। बसु चैटर्जी की व्यंग्यात्मक फिल्म पिया का घर में केश्टो एक टैक्सी ड्राईवर बाबू राव कुलकर्णी थे। हर समय पड़ोसी आगा के घर में अंडरवीयर में उन्हें ताश खेलते हुए दिखते थे। नई बहु के आगमन पर उन्हें पायजामा पहनाया गया। 'दि बरनिंग ट्रेन' में बिना टिकट होने के कारण उन्होंने पूरी यात्रा टॉयलेट में पूरी की। 'गज़ब'(१९८५) उनकी आखिरी फिल्म थी। इसमें वो चश्मे वाले बादशाह अकबर थे।
केश्टो ने तकरीबन १५० फिल्मों में दर्शकों को हंसाया था। यों तो उन्होंने अपने दौर के हर बड़े प्रोडयूसर-डायरेक्टर और नायक के साथ काम किया, परंतु ऋषिदा और गुलज़ार की फिल्मों में नियमित दिखे। उन्होंने उनकी प्रतिभा का श्रेष्ठ प्रयोग किया। ऋषि दा की खूबसूरत (१९८१) में वो कुक थे। इसके लिये फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता का पुरुस्कार उनके नाम रहा। उनका बेटा बबलू मुखर्जी फिल्मों में है और विभिन्न प्रकार की अनेक छोटी-मोटी में कुछ वर्ष पहले तक दिखता रहा। लगभग हर कॉमेडी का अंत ट्रेजडी में हुआ है। केश्टो मुखर्जी भी फकीरी की हालत में १९८५ परलोकवासी हुए।
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Published in Navodaya Times dated 17 Sept 2016
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