- वीर विनोद छाबड़ा
वो हमारे मित्र हैं। बहुत दिन बाद मिले। हमारी तरह रिटायर हैं। कहने लगे टाईम पास
नहीं होता। हमने पूछा, फेस बुक पर हो। वो बोले फेस बुक पर अकाउंट तो है। बच्चों ने खोल दिया था। लेकिन
हमें न खोलना आता है, और न बंद करना।
हमें यकीन नहीं हुआ। हमने कहा आप तो चीफ़ इंजीनियर रहे हैं। इस सब की जानकारी तो
होनी चाहिये।
इससे पहले कि वो कुछ कहते, उनकी पत्नी बीच में ही बोल पड़ीं। घर का फ्यूज़ तो बना नहीं सकते। ट्यूब लाईट बदलनी
हो तो मिस्त्री बुलाना पड़ता। पचास रूपये ले जाता है। कहता है आप बड़े लोग हो। आपसे नहीं
लेंगे तो किससे लेंगे।
हमने देखा बात कहीं और जा रही है। हम फिर उनको फेसबुक की तरफ घुमा लाये। उन्होंने
फिर टॉपिक घुमाया - यह सोशल मीडिया हमारी समझ से तो बाहर है। इससे क्राइम बढ़ रहा है।
सुना नहीं, रोज़ अख़बारों में छपता है कि फलां फलां के साथ भाग गयी।
हम समझ गए कि उनको फेस बुक और फेस बुकियों दोनों से चिढ़ है। बात करना ही नहीं चाहते।
ऐसे अनेक लोग हैं। अफ़सर भी और बाबू भी, हर तबके और वर्ग के लोग हैं।
एक भाई साहब को जानकारी तो है, लेकिन फुरसत नहीं। कहते हैं कि फेसबुक फालतू का काम हैं। क्या मिलता है? भाई साहब, आपके लिए ठीक है। रिटायर
हैं, न भजन कीर्तन, फेसबुक ही सही।
कुछ लोग हफ्ता-दस दिन बाद शेव करते हैं। या महीने-डेढ़ महीने बाद सर पर बचे थोड़े
से बालों को ट्रिम कराया। रंगाई-पुताई कराई। दर्जन भर सेल्फियां मारीं। तीन-चार शार्ट
लिस्ट की। कई एंगिल से निहारा। फेसबुक खोली और चिपका दीं। हम कितने हसीन हैं।
एक साहब ने मकान बनवाया तो याद आया कि चलो फेसबुक पर तस्वीरें चिपका कर दुनिया
को ख़बर दे दें। हम किसी से कम नहीं।
मोहतरमा ने रेडीमेड सूट लिया। पहना। दो चार पोज़ दिए। और फेसबुक पर पहुंच गयीं।
हॉय, मैं कैसी लग रही हूं?
हमें लगता है कि फेसबुक पर जो रेगुलर दिखते हैं वो टोटल फेसबुकियों का महज़ दस-बीस
परसेंट ही हैं। बाकी साइलेंट हैं, सो रहे हैं। मित्र सूची बढ़ा रहे हैं। हमारी भी और अपनी भी। अपने दोस्तों और रिश्तेदारों
को बता रहे हैं हमारे तीन हज़ार हो गए। देखना महीने भर में चार हो जायेंगे और दिवाली
तक तो पांच हज़ारी हो जाऊंगा। फिर मोहल्ले को धौंसियाते फिरेंगे - हमसे न टकराना। मेरे
पीछे पांच हज़ार की फौज़ है।
इधर हम और हमारे जैसे तमाम दूसरे भी खुश कि पांच हज़ारी हो रहे हैं। गले मिल कर
बधाई दे रहे हैं। मगर पोस्ट डाली तो लाईक ठनठन गोपाल सरीखी। २४ घंटे में दस-पंद्रह।
वो भी जाने कितनी दफ़े मित्रों-रिश्तेदारों को फ़ोन किया।
ठीक ही तो है। फेसबुक खोला, काम किया और लॉग आउट हो गए। दूसरे क्या लिख रहे हैं, गोली मारो। ऐसे में
तुम्हारे लिए कोई दुआ क्यों चाहेगा?
सुरख़ाब के पर लगे हैं तुम्हें क्या।
अरे भाई, फेस बुक खोलो। दस मिनट, पंद्रह मिनट, आधा घंटा रहो तो। दूसरों के विचार पढ़ो, अपने विचार रखो। पॉजिटिव रहो। ऐसे ही लोग मिलेंगे। घटेगा कुछ
नहीं, इल्म ही हासिल होगा। खामखां के लिए ही अकाउंट मत खोलो। कुछ क्रिएटिव काम करो। हर
व्यक्ति के पास, हर जेंडर में सृजनशीलता मौजूद होती है। इस्तेमाल करना या न करना आपकी मरज़ी।
भई बुरा ज़रूर लगेगा। लेकिन साठ पार के सठियाई पलटन के मेंबर हैं। समझाने की आदत
पड़ गयी है। और फ़र्ज़ भी तो बनता है।
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23-09-2016 mob 7505663626
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