-वीर
विनोद छाबड़ा
सन १९१२
में सिनेमा की तो शुरआत ही धार्मिक फिल्म से हुई थी - राजा हरिश्चन्द्र। और एक लंबे
समय तक इनकी जय जय होती रही। साठ के दशक में सामाजिक सिनेमा अपने चरमोत्कर्ष पर तो
धार्मिक सिनेमा अपनी पहचान खोने लगा। लेकिन फिर भी धार्मिक फिल्मों का बड़ा बाज़ार बना
रहा। साहू मोदक, महिपाल, बीएम
व्यास, जीवन, निरंजन शर्मा, अनीता गुहा, अंजना, निशि, मारुती, शेख आदि कलाकारों की तूती बोलती थी।
लेकिन
कभी-कभी पृथ्वीराज कपूर जैसे दिग्गज को 'हरिश्चंद्र तारामती' में देख कर सुखद अहसास होता था कि इंडस्ट्री का ये पक्ष इतना उपेक्षित नहीं है।
अभिभटाचार्य भी कभी दिख जाते थे। ए-ग्रेड फिल्मों के पॉपुलर विलेन जीवन तो इधर की बात
उधर पहुंचा कर झगड़ा कराने वाले स्थाई नारद मुनि थे। बिस्वजीत और मौसमी चटर्जी को राम
और सीता के रूप में ‘जय बजरंग बली’ में देखा गया। उन दिनों रामायण पर आधारित जो भी फिल्म बनती थी हनुमान जी की भूमिका
दारा सिंह के लिए पक्की होती थी। दूरदर्शन के लिए रामानंद सागर द्वारा बनाये सीरियल
‘रामायण’ में भी
दारा सिंह थे। वो हनुमान जी का पर्याय बन गए थे। दूरदर्शन पर जब रामायण का प्रसारण
होता था तो सड़कें सूनी हो जाती थी। बिजली नहीं जाती थी। जन-साधारण नहा-धोकर बैठते थे।
त्रासदी
यह थी कि सिने संसार में धार्मिक फिल्मों की गिनती सी-ग्रेड की श्रेणी में होती थीं।
अपवाद छोड़ दें तो रिलीज़ के लिए थिएटर भी घटिया श्रेणी के ही मिलते थे।
ज्यादातर
धार्मिक फ़िल्में कास्ट्यूम ड्रामा होती थीं। दर्शकों की कैटेगरी भोली-भाली धर्मपरायण
और गरीब और फ़कीर किस्म की जनता थी। भक्तगण परदे पर भोलेबाबा को चलते-फिरते देख कर धन्य
हो जाते थे - जय हो प्रभु।
लेकिन
सच तो यह भी है छुप-छुप कर भरपूर आनंद तो उच्च श्रेणी के दर्शकों ने भी भरपूर उठाया
है, पूरी
श्रद्धा और जोश के साथ, सपरिवार। धार्मिक फिल्मों की समीक्षा सिर्फ़ अंग्रेज़ी के स्क्रीन साप्ताहिक में
छपती थी। बहुत छोटी सी और वो भी किसी कोने में। भक्त प्रह्लाद, बालक ध्रुव, तीर्थ यात्रा, वीर हनुमान, संत ज्ञानेश्वर, सती सावित्री, संपूर्ण रामायण, जय बजरंगबली आदि फ़िल्में जब रिलीज़ हुईं थीं तो धूम मच गयी थी। हफ़्तों तक हॉउसफुल
का बोर्ड टंगा रहा।
संत ज्ञानेश्वर
का गाना - ज्योत से ज्योत जलाते चलो प्रेम की गंगा बहते चलो... तो आज भी गाया जाता
है। और सती सावित्री में मन्ना डे के साथ लता जी का गाया यह गीत तो आज भी गायन की दुनिया
में सर्वश्रेष्ठ कृतियों में गिना जाता है। बिनाका गीत माला में खूब बजते थे। धार्मिक
समारोहों में इनकी महती ज़रुरत रहती थी।
१९७०
में पंजाबी फ़िल्म 'नानक नाम जहाज है' (१९७०) एक सामाजिक -धार्मिक फिल्म थी। मुल्क के कोने कोने से जत्थे के जत्थे दिल्ली
गए थे इसे देखने। पंद्रहवें हफ्ते में भी हाउस फुल का बोर्ड नहीं हटा था। इसे राम माहेश्वरी
ने डायरेक्ट किया था और पृथ्वीराज कपूर, विम्मी के अलावा सुनील दत्त का अनुज सोमदत्त हीरो था। इसे रीजनल कैटेगरी में सर्वश्रेष्ठ
पंजाबी फिल्म और श्रेष्ठ म्यूजिक का नेशनल अवार्ड मिला था।
मुस्लिम
धार्मिक फ़िल्में भी बनती थीं। जिन दिनों 'जय संतोषी मां' की धूम थी, लगभग उन्हीं दिनों नाज़िमा, तबरेज़ और अरुणा ईरानी की 'दयार-ए-मदीना' भी हिट हुई थी।
लो बजट
'जय संतोषी
माता' ने तीन
करोड़ वाली 'शोले' जैसे ब्लॉकबस्टर के सामने हैरतअंगेज़ कामयाबी
हासिल की थी। मगर हैरानी की बात ये है कि इतनी बड़ी कामयाबी के बावजूद धार्मिक और पौराणिक
फिल्मों का बाज़ार इसके बाद ख़त्म ही हो गया। इसका कारण शायद यह है कि भक्ति के सारे
तत्व ए-ग्रेड की सामाजिक और पारिवारिक फिल्मों ने समेट लिए। नव सिनेमा/सार्थक सिनेमा
के उदय और तत्पश्चात दर्शक की सेक्स और हिंसा के प्रति बढ़ती रूचि भी धार्मिक और पौराणिक
सिनेमा के इतिहास बनने में एक कारक रहा। रही-सही कसर तो टीवी पर दिखाए जा रहे लंबे
धारावाहिक धार्मिक सीरियलों ने पूरी कर दी है। लेकिन क्रेज़ नाम की चीज़ गायब है।
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Published in Navodaya Times dated 10 Sept 2016
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