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वीर विनोद छाबड़ा
किसी का रंग काला हो तो उसे कलुआ कह दिया, चश्माधारी को चश्मुद्दीन
कह दिया, छह उंगली वाले को छंगुल कह दिया,
एक आँख वाले को कनवा। किसी को दिखाई नहीं देता तो उसे अंधे की
उपाधि दे डाली। एक टांग नहीं तो उसे लंगड़ा बना डाला। सुनाई नहीं दिया तो बहरा कह दिया।
बड़े अभद्र मज़ाक भी बनाते हैं। देख लीजिये किसी भी कॉमेडी सीरियल को। आजकल दर्जनों दिखते
हैं। क्या यह हमारी संस्कृति है? उस पर तुर्रा यह है कि हम बड़े फख्र से गीत गाते हैं - है प्रीत यहां की रीत सदा, मैं गीत यहां के गाता
हूं, भारत का रहने वाला हूं, भारत की कथा सुनाता हूं...
हमें मालूम नहीं किसी बाहरी मुल्क में ऐसा होता है कि नहीं। यह किसी सभ्य समाज
की निशानी नहीं है। हमारे बड़े-बुज़ुर्ग कहते थे किसी की जिस्मानी कमी की आड़ में उसका
उपहास न उड़ाओ। ईश्वर से डरो, क़ुदरत बहुत बेदर्द है। किसी को नहीं बख्शती है। चाहे छोटा है या बड़ा। अमीर है या
ग़रीब। हर कर्म का हिसाब देना होता है,
और वो भी इसी जन्म में। किसी एक्सीडेंट या बीमारी में तुम्हारी
आंख चली जाए या बांह कट जाए, सुनाई या दिखाई देना बंद हो जाए।
हमें याद है। कई साल पहले जब हम किशोरावस्था में थे तो रेडियो स्टेशन पर कहानी
पढ़ने जाते थे। सख्त हिदायत थी कि काना,
लंगड़ा, बहरा शब्द इस्तेमाल मत करो। धोबी को कपड़े धोने वाला और स्वीपर को सफ़ाई वाला कहना
है।
मेरा आशय मित्रों आप समझ गए होंगे। बाहर वालों को छोड़िये। सहनशीलता यहां की अब
पहचान और विशेषता नहीं रह गयी है। वो कह सकते हैं - अबे तुझे क्या है? अपने काम से काम रख, चल निकल ले पतली गली।
सिर्फ खुद को अपने बच्चों को ही समझा दीजिये। समझ लीजिये काम हो गया। ज्योत से ज्योत
जलाते चलो।
लेकिन हमारे विकट स्थिति है। एक किरयाने की दुकान है। मालिक का रंग काला नहीं है, लेकिन उसे लोग कल्लू
कहते हैं। हमने उस दिन उससे उसका नाम पूछा तो बोला - कल्लू। बचपन से यही नाम है। स्कूल
के रजिस्टर पर, हाई स्कूल के सर्टिफिकेट पर यहीं नाम लिखा है। डिग्री नहीं है, वरना वहां पर भी यही
लिखा है। शादी के कार्ड पर भी यही लिखा था। घर वाली भी कल्लू कहती है, लेकिन प्यार से। बस
शुक्र है कि बच्चे पापा कहते हैं।
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