फेसबुक पर तीन साल।
- वीर विनोद छाबड़ा
तीन साल पहले। आज ही का दिन। तकरीबन यही समय भी। ख़ुर्शीद अहमद
आये थे। फेसबुक अकाउंट खोल दिया। मुद्दत से चाह थी। एक नई दुनिया मिली, उम्मीद से ज्यादा आनंद आया। शुरू के कुछ दिन तक हमें दिक्कत
हुई। हम तो कंप्यूटर का क ख ग घ तक नहीं जानते थे। खुर्शीद ने हौंसला बढ़ाया कि कुछ
भी नहीं है इसमें। बस अक्षर ज्ञान होना चाहिए। हम तो बहुत आगे थे। ट्रिपल एमए और किसी
ज़माने के घनघोर टाईपिस्ट।
इससे पहले हम सोचते थे कि यह सोशल मीडिया, फेसबुक आदि सब बकवास होता है।कागज़, पेन और स्याही के सामने भला किसी विकल्प की क्या औक़ात? इसीलिए हम दूर भागते रहे। लेकिन अवसादग्रस्त जीवन में तनिक ख़ुशी
लाने हेतु एक प्रयोग करने में क्या जाता है? इस सोच के साथ और
कुछ मित्रों की राय के आधार पर हम फेसबुक पर आये। यों हम कुछ लेट-लतीफी हैं, लेकिन समय के साथ चलने के कायल रहे हैं।
अरे, यह तो कागज़, पेन और स्याही सच्चा साथी निकला, बस रूप बदला हुआ है। ख्यालातों को पंख मिले। दिमाग में भरा समस्त
कूड़ा-करकट, अच्छा या बुरा सब बाहर आने लगा। दुनिया की असलियत अब सामने आई।
बल्कि दुनिया को तो अब समझा।
हम दोस्तों के रहते, दुश्मनों के ख्वाहिशमंद
न पहले कभी रहे और न फेसबुक पर। बहुत मिले और चले गए। उन्हें हमारे डीएनए में कांग्रेस
का होना पसंद नहीं आया। मानों हम देश के दुश्मन हो गए। जबकि हमें उनका संघी होना कभी
बुरा नहीं लगा। हम तुम्हारी सोच को नहीं बदल सकते तो तुम हमारी सोच को नहीं बदल सकते।
हम सामाजिक समरसता में यकीन करते थे, करते हैं और करते
रहेंगे।
हमने कभी गुस्से में किसी को अमित्र किया भी तो उसकी शिकायत
पर हमने उसे फिर गले लगा लिया। निंदक नियरे राखिये।
हमें सबसे बड़ी उपलब्धि ये मिली कि हमने स्वयं को फिर से खोजा।
सिनेमा और क्रिकेट के आगे हमारा कोई लेखन ख़ास नहीं था। यहां हमें खुद को खंगालने का
मौका मिला। हम खुद पर हैरान हुए। कहां थे अब तक? चलो, देर आये, दुरुस्त आये। कुछ लोगों की किस्मत में देर से जन्म लेना लिखा
होता है।
हमें बहुत अच्छा लगा जब हमें नए मित्रों के साथ पाठक भी मिले
और बहुत पुराने-पुराने दोस्त भी, जो छटे दर्जे में
हमारे साथ पढ़ते थे।
अखबारों के साथ फिर जुड़ना हुआ। संप्रति दो अखबारों में रेगुलर
कॉलम लिख रहे हैं। कुछ मुद्रा भी मिलती है।
इधर हमने लिखना कम किया है। थोड़ी निराशा हुई है। यहां चोर-डकैत
बहुत हैं। दूसरे की बौद्धिक संपदा पर खुले आम डाका मारने वाले। यहां का माल व्हाट्सअप
पर बेचते हैं और वहां का यहां।
कुल मिला कर तीन साल पहले जो मज़ा मिलना शुरू हुआ था, वो सिलसिला अभी तक ज़ारी है। बस डर यही लगता है, चिरनिद्रा न आ जाए। इसीलिये दिन हो या रात, हम समय नहीं देखते। लिख देते हैं। कल हो न हो। लिखना हमारा काम
है। बाकी पसंद आप की है।
---
29-09-2016 mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016
दिल से लिखी हुई पोस्ट है यह आपकी । बौद्धिक सम्पदा की चोरी वाली बात बिलकुल सही है लेकिन किया क्या जाए ? मुझे तो फ़ेसबुक पर अधिकतर लोग समय नष्ट करते हुए और अपने भीतर की विकृतियों को सामने लाते हुए ही लगते हैं । इसीलिए मेरा फ़ेसबुक खाता तो मैं प्रायः डीएक्टिवेट ही रखता हूँ । लेकिन विभिन्न मंचों पर लिखना जारी है । आप अपने वर्तमान आभासी जीवन से प्रसन्न हैं, कुछ मुद्रा भी आपको मिल रही है; यह अच्छी ही बात है । ईश्वर आपकी लेखनी को सदा सशक्त एवं ऊर्जावान बनाए रखें एवं आप स्वयं जीवनपर्यंत स्वस्थ एवं शांतमना रहें, यही शुभकामना देता हूँ ।
ReplyDelete