Thursday, September 8, 2016

तू ही चली गयी

- वीर विनोद छाबड़ा
अवसाद से उसका पुराना नाता रहा था। पिछले ३२ बरस से वो कष्ट में थी। बड़ी धूमधाम से उसकी शादी हुई। लेकिन पति से निभ न पाई। एक दिन वो उसे डिज़र्ट कर के चला गया। उसने भी निर्णय लिया कि अपने बच्चे के सहारे ज़िंदगी काटूंगी। मेहनत करेगी और बच्चे को एक अच्छा इंसान बनाऊंगी। लेकिन वो छोटी-छोटी बात पर भी अवसाद में डूब जाती थी। उसे बड़ी मुश्किल से उबारा जाता था। पिताजी उसे आर्थिक रूप से बैकअप करते थे। पिताजी चले गए तो यह ज़िम्मेदारी मेरी हो गई। एक दिन मेरे पिता उसे लेकर बहुत परेशान थे। मैंने उनको आश्वस्त किया था। बेटे पर भरोसा करें। आपके बाद मैं हूं। उसे प्रत्यक्ष और कभी छुप छुप बैकअप करता रहा। 

एक प्राईमरी स्कूल में पढ़ाती थी और पास में किराये पर रहती थी। उसे मकान मालिक ने नोटिस दे दिया। पत्नी ने कहा इसे अपने ही घर में ऊपर दो कमरे का सेट बनवा दो। बिलकुल फ्री में रहेगी। एक टेंशन तो ख़तम। पत्नी को समझना बहुत मुश्किल रहा है मेरे लिए। मैं तो चाहता ही यही था।
पिछले अठ्ठारह से मेरे साथ रह रही थी। इस बीच उसकी नौकरी छूट गयी। मैं उसे हर तरह से बैकअप करता रहा। उसके अवसाद की निशानी थी - चुप्पी। लाख उसे कुछ कहो, जवाब नहीं देती थी। इधर पिछले लगभग चार साल से बिस्तर पर थी। पैरालिसिस का यह दूसरा अटैक था। इस बीच उसका बेटा बड़ा हो चुका था। अच्छा कमाने भी लगा। दूसरे शहर जाना पड़ा उसे। लेकिन वो खुद चलने-फिरने से मजबूर। टॉयलेट के लिए भी दूसरों के सहारे। यह भी डिप्रेशन के एक कारण। मैं समझाता था उसे कि हम सब मिल कर कर तो रहे हैं।

अपवादों को छोड़ कर मेरा कहीं दूर आना-जाना प्रतिबंधित हो गया। मैंने इसे नियति मान कर सहर्ष स्वीकार कर लिया।
पिछले तीन महीने से उसके शारीरिक कष्ट बढ़ गए थे। अवसाद गहरा होता जा रहा था। खाना-पीना छोड़ दिया था। अस्पताल में भर्ती कराया। दस दिन बाद डिस्चार्ज हुई। चीयरफुल दिख रही थी। लेकिन जाने क्या हुआ कि...
हम सब फिर भागे डॉक्टर के पास। शायद दवाओं के रिएक्शन है या ओवरडोज़। उन्होंने आश्वस्त किया। ठीक हो जायेगी। एमआरआई और कई तरह के ब्लड टेस्ट और कल मिलें। हम सब घर आ गए। पत्नी ने कहा इसे अपने कमरे में लिटा लो। रात भर जागते हो। ड्यूटी भी दे दो।

मैंने उसे खूब हंसाया। बच्चों की कहानियां सुनाई। लोरियां भी सुनाई। रात भर मैं उसके सिरहाने बैठा रहा। वो जाने क्या बड़बड़ाती रही। बीच बीच में हंसती भी थी। मुझे सिर्फ एक शब्द समझ में आता रहा - बिल्लू। जब मैं कहता था तुम्हारे पास ही तो बैठा हूं तो वो मुझे घूर कर देखती और कुछ क्षण के लिए चुप हो जाती। एक बार एक शब्द और मुझे सुनाई दिया। अम्मां आयी है। मैंने कहा, नहीं मैं हूं। छोटी होने के बावज़ूद वो मुझे ज़िंदगी भर बिल्लू ही कह कर पुकारती रही। यों मेरी जितनी भी चचेरी, फुफेरी और मौसेरी बहनें हैं सभी मुझे बिल्लू भैया या बिल्लू भापा जी कहती हैं। अच्छा लगता है। बचपन याद आता है।
भोर में उसे नींद आयी। सुबह नौ बजे उसकी और मेरी नींद खुली। मैंने उसके बेटे को ड्यूटी सौंपी। यह कह कर मैं घर से निकला कि कुछ ज़रूरी काम निपटा कर लौटता हूँ।
थोड़ी देर बाद फ़ोन आया - मामा, कुछ ठीक नहीं लग रहा है। मैं दौड़ा दौड़ा घर पहुंचा। भांजे ने रोते रोते बताया कि मम्मी यह कह कर खामोश हो गयीं कि अम्मां आई है।
यहीं नियति से ज़िंदगी हारती है। मैं तो आ ही रहा था। तू ही चली गयी।
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