Monday, September 5, 2016

छड़ी मास्टरों का जलवा था।

 -वीर विनोद छाबड़ा
हमें वो गुज़रा ज़माना भली-भांति याद है जब शिक्षक की प्राथमिकता देश को अच्छा नागरिक और बेहतर शैक्षिक माहौल देना था। प्राईवेट टयूशन नहीं थी। शिक्षक का एकमात्र सिद्धांत था, छात्र को इंसान बनाते। फोकस कुशाग्र छात्रों पर नहीं अपितु मंदबुद्धि छा़त्रों पर था। कभी एक्स्ट्रा क्लास लेकर तो कभी उनके माता-पिता को परामर्श देकर। हमने भी ऐसी अनेक एक्स्ट्रा क्लासें अटेंड की थीं। शिक्षकों के तरकस में बैले छात्रों को सुधारने का तरीका था, समझावन लाल यानि छड़ी। यों छड़ी वाले मास्टरों का ज़बरदस्त जलवा था। बिगड़ैल छात्र भी ख़ौफज़दा रहते थे। मजे की बात तो ये थी उस ज़माने के मां-बाप भी बच्चे का दाखिला ऐसे स्कूल में कराना पसंद करते थे जहां छड़ी मास्टरों की भरमार हो। बेंच पर खड़ा करना या मुर्गा बनाना तो आम बात थी।
हमें याद आती है साठ के दशक की इंटरबोर्ड की परीक्षा। परीक्षा प्रारंभ होने से पूर्व फ़तवा ज़ारी हुआ। जिस जिस की जेब में नकल की सामग्री हो पांच मिनट में बाहर कर दे अन्यथा रेस्टीकेशन सुनिश्चित। दो छात्रों को छोड़ पूरी क्लास खाली हो गयी। हम उन दो में नहीं थे।

हमें प्राईमरी से लेकर ट्रिपल एमए तक के लगभग सभी गुरूजन के नाम, सूरतें व आदतें याद हैं। अगर वो न होते तो हम जाने किस गट्टर में होते। एक थे जीडी बाबू। हिसाब और अंग्रेजी पढ़ाते थे। छोटा कद, दुबला जिस्म और सांवला रंग। मुंह पर हल्के-हल्के चेचक के दाग भी। पूरे ४४० वाल्ट का करंट। सफेद कमीज़ के साथ काली या भूरी पेंट। और हाथ में छड़ी। यही उनकी पहचान थी। जिस दिन पैंट भूरी हुई समझो छड़ी शांत रहती। लेकिन जिस दिन पैंट का रंग काला दिखा तो सुताई दिवस हो गया समझो। उनकी छड़ी के शिकार हम भी रहे। तीन बार की सुताई तो आज भी याद है। एक बार क्लास में नवाब पटौदी के दिल्ली में टेस्ट में डबल सेंचुरी ठोकने पर जश्न मनाने पर। दूसरी बार स्कूल बंक करके सिनेमा देखते पकड़े गये। तीसरी दफा कालेज के पिछवाड़े पतली गली में सिगरेट फूंकते हुए पकडे गए। छड़ी टूट गई तो तमाचे मारे। पीटने के बाद पुचकारते भी थे। तुम लोगों को सुधारने के लिये यह सब करता हूं। बाप की खून-पसीने की कमाई बर्बाद मत करो।
हाई स्कूल में इतिहास पढ़ाते थे - गन्नू बाबू। दुबली-पतली क्षीण काया और छोटा कद। निहायत ही मृदुभाषी व शरीफ। मैथ व साइंस पढ़ाने वाले उनके साथी मज़ाक करते थे - ऐसी कद काठी और स्वभाव का आदमी हिस्ट्री ही पढ़ा सकता है। एक बार जोर का आंधी-तूफान आया और साथ में मूसलाधार जोरदार बारिश हुई। छात्रों को मज़ाक सूझी। ज़रा देखो गन्नू बाबू उड़ कर बह तो नहीं गये। लेकिन गन्नू बाबू छात्रों के पीछे ही खड़े थे। छोटे कद के कारण कोई उन्हें देख नहीं पाया। अरे, तुम जैसे बड़े-बड़े बहादुर बेटों के होते हुए भला मुझे कभी कुछ हो सकता है। इसके साथ हो वो जोर से हंसे। छात्रगण बहुत शर्मिंदा हुए थे।

इंटर के एक और मज़ेदार शिक्षक याद हैं। हिंदी पढ़ाते थे। आराम से कुर्सी पर पसड़ जाते। किसी भी छात्र को खड़ा कर देते। पढ़ो बच्चा तुलसीदास को। पृष्ठ संख्या... हर चौपाई के बाद अर्थ बताते चलते। जहां समझ में न आये तो झेंप जाते। बहुत अच्छा कहे हो तुलसीदास। बच्चा आगे बढ़ो।
आज का दौर पहले के दौर से बिलकुल उलट है। सोच बदल गयी है। सामाजिक मूल्य भी बदले हैं। निजी शैक्षिक कोचिंग संस्थानों का बोलबाला है। सब चमचमाते सात सितारा बाज़ार हैं। जहां गुरूजन से लेकर मेधावी छात्रों तक की बढ़िया पैकेजिंग करके भरपूर मार्किटिंग हो रही है। कुछ भी हो अपने समस्त श्रद्धेय गुरूजनों को याद करते हुए हम आज भी संत कबीर दास के इस दोहे के कायल हैं- गुरू गोविंद दोऊ खड़े, काके लागे पाएं, बलिहारी गुरू आप हैं जो गोविंद दियो मिलाए।
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Published in Prabhat Khabar dated 05 Sept 2016
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